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शब्द के व्यापार में.. (नवगीत) // --सौरभ

पूछता है द्वार
चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं !

सोच ही में लक्ष्य से मिलकर
बजाता जोर ताली
या, अघाया चित्त
लोंदे सा,
पड़ा करता जुगाली.

मान ही को छटपटाता,
सोचता--
कितना तुलूँ मैं !

घन पटे दिन
चीखते हैं -- रे, पड़ा रह तन सिकोड़े..
काम ऐसा क्या किया, पातक !
कि व्रत में रस सपोड़े !

किन्तु, ले शक्कर हृदय में
कुछ बता
कितना घुलूँ मैं !

शब्द के व्यापार में हैं रत
किये का स्वर  
अहं है
इस गगन में राह भूला वो
अटल ध्रुव
जो स्वयं है !

अब मुझे, संसार,
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !
*****************
--सौरभ

*****************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:39am

भाई बैद्यनाथ सारथीजी, आप जैसे गहन रचनाओं के रचनाकारों का अनुमोदन सदा से मार्गदर्शन हुआ करता है.

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:37am

आदरणीय वन्दनाजी, आपका आना भला लगा. हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:35am

धन्यवाद आदरणीय भाई नीरज नीर जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:34am

किसी रचना ही नहीं किसी प्रस्तुति की पंक्तियों में भिन्न-भिन्न पाठक जब अपने-अपने मनोभावों को शब्दशः हुआ देखने लगते हैं तो उक्त रचना की प्रासंगिकता व्यापक हो गयी ऐसा माना जाता है.

आदरणीया राजेश कुमारीजी के मनोभावों को रचना से संतुष्टि मिली जान कर अपार संतोष हुआ. तथा मेरा कविकर्म आश्वस्त हुआ. विश्वास है, आदरणीया, आपका सहयोग बना रहेगा.
सादर धन्यवाद
 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 10:28am

धन्यवाद आदरणीय प्रदीपजी.

Comment by Meena Pathak on March 4, 2014 at 10:28am
Hamesha Ki tarah bejod Rachna .. Saadar Badhai
Comment by Saarthi Baidyanath on March 4, 2014 at 8:53am

पूरी रचना .... आत्म-चिंतन का एक जीता जागता उदाहरण ! भावनाओं की सघनता का तो कहना ही क्या ...! शुरुआत ही आगे बढ़ने और पढ़ने को विवश कर देती है ! ...जय हो 

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !....

अब मुझे, संसार, 
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !....बेजोड़ अभिव्यक्ति !

Comment by vandana on March 4, 2014 at 6:42am

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !

बहुत सुन्दर नवगीत आदरणीय 

Comment by Neeraj Neer on March 3, 2014 at 7:08pm

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !

सोच ही में लक्ष्य से मिलकर 
बजाता जोर ताली 
या, अघाया चित्त 
लोंदे सा, 
पड़ा करता जुगाली. 

मान ही को छटपटाता, 
सोचता-- 
कितना तुलूँ मैं ! .. वाह!  बहुत ही उत्कृष्ट नवगीत लिखा है आपने .. बहुत बधाई ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 3, 2014 at 6:28pm

शब्द के व्यापार में जो रत 
भाव का वर्ण  
अहं है  
इस गगन में राह भूला वो 
अटल ध्रुव 
जो स्वयं है !

अब मुझे, संसार, 
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !------वाह बहुत शानदार --इस जीवन में सब कुछ संभव है किन्तु मन तटस्थ है संकल्पित है तो उसे कोई लालच भटकने नहीं देगा ,मान सम्मान ही सब कुछ है इसको क्यों बिखरने दूँ ...मन खुद से प्रश्न पूछता है उत्तर भी जानता है किन्तु एक भय उसे समझने नहीं देता इसी उधेड़ बुन को बहुत सुन्दर शब्दों के माध्यम से उकेरा है इस प्रस्तुति में  

पूछता है द्वार 
चौखट से -- 
कहो, कितना खुलूँ मैं !-------मन की छटपटाहट इन शब्दों में खूब उतारी है ...जैसे कोई रस्सी कह रही हो कितनी एंठन बर्दाश्त करूँ मैं 

अर्थात कितना सहूँ ?

 

किन्तु, ले शक्कर हृदय में 
कुछ बता 
कितना घुलूँ मैं !------कहीं ऐसा न हो घुलता- घुलता अपने ही वजूद न खो बैठूं 

वाह ,वाह इस शानदार नवगीत के लिए अतिशय बधाईयाँ आपको आ० सौरभ जी  
*****************

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