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कविता : विकास का कचरा और कचरे का विकास

शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है

सरसों के तेल की खाली बोतल

 

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली

शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है

पानी की एक लीटर की खाली बोतल

 

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं

उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

 

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर

हवा के झोंके के सहारे भागकर

कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे हैं

 

सिगरेट और अगरबत्ती के खाली पैकेटों के बीच

जोरदार झगड़ा हो रहा है

दोनों एक दूसरे पर बदबू फैलाने का आरोप लगा रहे हैं

 

यहाँ आकर पता चलता है

कि सरकार की तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद

धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं पॉलीथीन की थैलियाँ

 

एक गाय जूठन के साथ साथ पॉलीथीन की थैलियाँ भी खा रही है

 

एक आवारा कुत्ता बकरे की हड्डियाँ चबा रहा है

वो नहीं जानता कि जिसे वो हड्डियों का स्वाद समझ रहा है

वो दर’असल उसके अपने मसूड़े से रिस रहे खून का स्वाद है

 

कुछ मैले-कुचैले नर कंकाल कचरे में अपना जीवन खोज रहे हैं

 

पास से गुज़रने वाली सड़क पर

आम आदमी जल्द से जल्द इस जगह से दूर भाग जाने की कोशिश रहा है

क्योंकि कचरे से आने वाली बदबू उसके बर्दाश्त के बाहर है

 

एक कवि कचरे के बगल में खड़ा होकर उस पर थूकता है

और नाक मुँह सिकोड़ता हुआ आगे निकल जाता है

उस कवि से अगर कोई कह दे

कि उसके थूकने से थोड़ा सा कचरा और बढ़ गया है

तो कवि यकीनन उसका सर फोड़ देगा

 

ये विकास का कचरा है

या कचरे का विकास?

--------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 4, 2014 at 11:34am

बहुत बहुत शुक्रिया Saurabh जी। आपके सुझाव पर मैं अवश्य विचार करूँगा। स्नेह बना रहे


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 23, 2014 at 3:18am

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, प्रस्तुत कविता जिस संवेदना के साथ प्रारम्भ होती है, अपने अंत तक जाते-जाते करारा व्यंग्य बन कर सफलता के साथ उभरती है. प्रयुक्त हुआ प्रत्येक बिम्ब सटीक और चित्रात्मक है.
यह अवश्य है, कि कविता तनिक कम शाब्दिक होती. ऐसी कविताओं का सान्द्र होना अच्छा होता है.
ऐसा मैं अपनी समझ भर ही कह रहा हूँ. वर्ना, आपकी कविता रोमांचित करती है.
इस प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 8:53pm

शुक्रिया प्राची जी, यहाँ मैंने व्यंग्य नहीं किया है केवल सच को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 10, 2014 at 10:29am

सार्थक प्रस्तुति आ० धर्मेन्द्र जी 

बधाई स्वीकारिये 

पर ये कविता है या सिर्फ व्यंग ? 

कृपया ध्यान दे...

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