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लघुकथा - यह भी जीवन है

पत्नी जिस बस से आ रही थीं, उसे घर के पास से ही होकर गुजरना था. रात का समय था. हल्की ठण्ड थी. मैंने हाफ़ स्वेटर पहना और टहलता हुआ उस मोड़ तक पहुँच गया, जहाँ पत्नी को उतरना था. बस के वहाँ पहुँचने में अभी कुछ समय शेष था. ठंडी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी इसलिए उससे बचने की खातिर मैं फुटपाथ के किनारे बनी दुकान के चबूतरे पर जा बैठा.

कुछ लोग वहीँ जमीन पर सो रहे थे. पास का व्यक्ति चादर ओढे, अभी जग रहा था.

मैंने उत्सुकता वश पूछा 'भैया, यहीं रोज सोते हो?’

'हाँ', वह बोला.

‘जाड़े में क्या करते हो?’

‘यहीं लेटता हूँ.’

‘और बरसात में?’

‘यहीं’

‘भीगते नहीं? यहाँ तो पानी आता होगा?’

‘किनारे हो जाता हूँ या बैठ जाता हूँ.’

‘ओह! तब तो दिन में काम पर भी असर पड़ता होगा. क्या करते हो?’

‘कुछ नहीं.’

यह सुनकर मैं अचकचा गया. ऐसे उत्तर की मैंने अपेक्षा नहीं की थी.

‘तो फिर खाते क्या हो?’ मैंने उत्सुकतावश पूछा.

‘मैं न चोरी करता हूँ, न भीख माँगता हूँ और न काम करता हूँ. पास में जंगल है. वहाँ से गांजे की पत्तियाँ तोड़ लाता हूँ. खुद भी पीता हूँ औरों को भी पिलाता हूँ. उन्हीं से पैसे मिल जाते हैं.’ उसने निरपेक्ष भाव से उत्तर दिया.

मैं चुप हो गया.

आज भी सोच रहा हूँ कि ये खुश होने की बात है या दुखी?

.

-  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित) 

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Comment by बृजेश नीरज on February 19, 2014 at 11:39pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 19, 2014 at 11:28pm

ऐसा जीवन भी होता है, बहुत बढ़िया रचना साझा की आपने आदरणीय बृजेश जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by बृजेश नीरज on February 18, 2014 at 10:15pm

आदरणीय शिज्जु शकूर जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 18, 2014 at 8:39pm

वाकई यह एक ऐसी परिस्थिति है कि उस जाड़े से ठिठुरते व्यक्ति के हिम्मत की दाद दी जाये या उसके काम के लिये उसे समझाइश, इस कश्मकश को आपने बहुत खूबसूरती से पेश किया है। आदरणीय बृजेश जी बहुत बहुत बधाई आपको

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