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धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में (गीत).

धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
क्रांतिकारियों ने जो बलिदान है दिया 
निज देश पे हर बात को कुर्बान कर दिया 
हम छांव में खड़े थे वो चले थे धूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
बयानबाजियों से कभी हल नहीं कोई 
उंगली उठा के दूजे पे सफल नहीं कोई 
फर्क प्रजातंत्र  में न रंक ओ भूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
देश है तो राज और ये नीति  सब सही 
कुर्सियों से प्रेम दल से प्रीति सब सही 
बिन देश कौन रह सका है रंगो-रूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
अमन परस्ती की है  पहचान हमारी 
नानक कबीर बुद्ध सी है शान हमारी
शामिल है नाम अपना ऐसे अनूप में
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
-----------------------------------------
अविनाश बागड़े....मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by AVINASH S BAGDE on January 17, 2014 at 6:33pm

Shyam Narain Verma ji shukriya

Comment by AVINASH S BAGDE on January 17, 2014 at 6:33pm

Meena Pathak mam aabhar aapaka..

Comment by AVINASH S BAGDE on January 17, 2014 at 6:32pm

आप इस गीत को अवश्य ही नवगीत की संज्ञा न दें, ji Saurabh ji mai apana ye bayan wapas leta hun.....aabhar.

Comment by Shyam Narain Verma on January 17, 2014 at 4:08pm
सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये बधाई ...
Comment by Meena Pathak on January 17, 2014 at 2:48pm
अमन परस्ती की है  पहचान हमारी 
नानक कबीर बुद्ध सी है शान हमारी
शामिल है नाम अपना ऐसे अनूप में
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में...................बहुत खूब,,, बधाई आप को | सादर 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2014 at 2:45pm

इस प्रस्तुति का भाव पसंद आया आदरणीय अविनाश भाई. इसके लिए अनेकानेक शुभकामनाएँ.

किन्तु, यह प्रस्तुति एक पारंपरिक गीत शैली की रचना है. इसे आपने ’नवगीत; क्यों और किन मानकों के आधार पर कहा है कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा है.
आप इस गीत को अवश्य ही नवगीत की संज्ञा न दें, आदरणीय, जो कि विशेष शिल्प और विशेष विधान की रचनाओं के लिए रूढि हो गया है.  
सादर

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