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ग़ज़ल - इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या - अभिनव अरुण्

ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२

इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,

गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |

पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,

यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |

औघड़ी फांक ले मसानों की ,

देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |

बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,

खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |

ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,

ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |

माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या है आसमाँ  भी क्या |

ख़ूब चर्चा में है वेलेन्टाइन ,

इश्क़ तेरी सजी दुकां भी क्या |

उनकी नज़रें हुईं जिगर के पार ,

तीर को चाहिए कमां भी क्या |

 

मुझको शहरे ग़ज़ल घुमा लायी ,
 ख़ूब उर्दू ज़ुबां ज़ुबां भी क्या |

यूं लगे है ख़ुदा बुलाता है ,
इन मीनारों से है अजां भी क्या |

     - मौलिक और अप्रकशित.

                 - अभिनव अरुण

                    {16122913}

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 16, 2013 at 6:37pm

आदरणीय अभिनव भाई , क्या बात है , बहुत खूब सूरत गज़ल कही है । आपको ढेरों बधाइयाँ ।

माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या है आसमाँ  भी क्या |

ख़ूब चर्चा में है वेलेन्टाइन ,

इश्क़ तेरी सजी दुकां भी क्या | --- विषेश के लिये विषेश बधाई  ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2013 at 5:56pm

अभिनव जी

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने i आपको शुभ कामनाये i

कृपया ध्यान दे...

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