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हँसते रहे रोते रहे |

गूंजती थी जब खमोशी, हादसे होते रहे |

रात जागी थी जहां पर दिन वहीँ सोते रहे ||

 

अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर

अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||

 

कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,

कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||

 

भावना विचलित हुई जब चीर नैनो से हटा,

चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||

 

पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,

हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे ||

 

गुम गए फिर शब्द सारे बह गए नद नीर में,

तब जनाजे का उठा छः गज कफ़न ढोते रहे ||

 

अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,

बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे ||

 

 

मौलिक/अप्रकाशित.

 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 21, 2013 at 8:59am

बहुत सुंदर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई 
.
चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||.. इस मिसरे में तनिक लय भंग प्रतीत हो रही है ... हो सकता है मै गलत होऊं 
सुंदर रचना के लिए पुन: बधाई 

Comment by Ashok Kumar Raktale on November 20, 2013 at 10:33pm

आदरणीय बागी जी सादर प्रणाम, आपको  रचना अच्छी लगी मेरा रचना कर्म सार्थक हुआ. हार्दिक आभार .

भाई राम पाठक जी, भाई शिज्जू शकूर जी रचना पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 20, 2013 at 9:09pm

//पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,

हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे //

वाह आदरणीय रक्ताले साहब, अच्छा शेर है, ग़ज़ल बहुत ही अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई । 

Comment by ram shiromani pathak on November 20, 2013 at 8:46pm

आदरणीय अशोक रक्ताले जी सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई  आपको। ……


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 20, 2013 at 8:21pm

आदरणीय अशोक रक्ताले सर बेहतरीन रचना है वाह दिली दाद कुबूल करें

कृपया ध्यान दे...

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