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छा रहा है गगन में कुछ कुछ उजाला
बढ़ रही है पूर्व दिशि की लालिमा

जगमगाते तारे भी फीके पड़े हैं
घट रही है यामिनी की कालिमा

चन्द्रमा निस्तेज होकर जा छुपा है
मंद पड़ती श्वेत किरणों को समेटे

चाहता है पश्चिमी दिव्यांगना के
पास जाकर गोद में कुछ काल लेटे

हाथ थामे दिग्वधू का आ रहे हैं
तिमिर के बैरी प्रभु श्री अंशुमाली

मंद वायु भी लगी है मुस्कुराने
छिप गयी है कही जाकर रात काली

हिमगिरी के हर शिखर पर छा गयी है
चमचमाते सूर्य की पीताभ छाया

कुलिश-पाणि इन्द्र की पूरब दिशा में
शान से दिननाथ ने आसन जमाया

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on October 19, 2013 at 10:24pm

प्रवीण जी सुन्दर प्राकृतिक छटा ....अच्छी और कोमल रचना ..प्यारे शब्द ..बधाई
भ्रमर ५


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 19, 2013 at 5:56pm

आदरणीय प्रवीण भाई , प्रकृति का अनुपम वर्णन !!! वाह !!! आपको बहुत बधाई !!!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 19, 2013 at 1:32pm

अद्भुत रचना बहुत बहुत बधाई हो आदरणीय

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