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5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण

 

जीवन कैसा

एक चिटका शीशा

देह मिली है

बस पाप भरी है

भ्रम की छाया

यह मोह व माया

अहं का फंदा

मन दंभ से गन्दा

शब्द हैं झूठे

सब अर्थ हैं छूटे

तृप्ति कहीं न

सुख-चैन मिले न

फाँस चुभी है

एक पीर बसी है 

प्यास बढ़ी जो

अब आस छुटी जो

किसे पुकारें

अब कौन उबारे

एक सहारा

माँ यह तेरा द्वारा

हे जगदम्बे!

शरणागत तेरे

आरती गाऊँ

रज माथ लगाऊँ

आन उबारो

यह जीवन तारो

माँ जगदम्बे!

सुन! हे माता अम्बे!  

अब आ जगदम्बे!

   -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on October 17, 2013 at 6:27pm

आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! :))))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 6:26pm

यह भी सही.. गुड !

जय हो.... ..  

 

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 7:17pm

आदरणीय निकोर साहब आपका हार्दिक आभार!

Comment by vijay nikore on October 15, 2013 at 7:02pm

अति मोहक ! बधाई ।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 6:56pm

आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by विजय मिश्र on October 15, 2013 at 2:57pm
जय जगदम्बे . प्रसंशनीय .बधाई बृजेशजी
Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 2:04pm

 आदरणीया राजेश कुमारी जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बहुत बल मिला!

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 15, 2013 at 10:53am

विधा कोई भी हो यदि उसको सही सांचे में ढाला जाए तो बेमिसाल प्रस्तुति बन जाती है जैसे इस रचना में आपने कमाल किया शब्द कम पड रहे हैं तारीफ के लिए बस हृदय से बधाई बधाई बधाई ब्रिजेश नीरज जी 

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 6:35am

आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 15, 2013 at 6:34am

आदरणीय अखिलेश जी आपका हार्दिक आभार!

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