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बात जग को भला क्यूँ खल रही है

२१२२   १२२     २१२२ 

इक नजर इक नजर से मिल रही है

बात जग को भला क्यूँ खल रही है

वो हसी  चाल कोई चल रही है

रोज हल्दी वदन पे मल रही है

सर्द मौसम तन्हाई का अलम है

चांदनी शब् भी हमें अब खल रही है

इस तरफ हैं तडपती बाहें मेरी

उस तरफ उम्र उनकी ढल रही है

हो रहा बस अलावों का जिकर् ही

आग कब से दिलों में जल रही है

बाहुपाशो में बंधे हैं वदन दो

अब घड़ी मौत की भी टल रही है

हुश्न ने जिस घड़ी सीखा मचलना

तब से उल्फत दिलों में पल रही है

प्रेम की ही तपिश का ये असर है

पर्वतों सी जमी हिम गल रही है

सब समझ बैठे उल्फत बासना है

सोच ये आशु अब भी चल रही है  

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Vinita Shukla on August 25, 2013 at 9:01am

शब्दों की सुंदर बुनावट; सहज, सार्थक अभिव्यक्ति. बधाई स्वीकार करें.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2013 at 8:23am

नीरज जी .आपके ये शब्द मुझे हमेशा कुछ नूतन लिखने का हौसला देते रहेंगे ,,,आपका स्नेह बना रहे ऐसी ही अंतस से कामना है ..सादर 

Comment by Neeraj Nishchal on August 24, 2013 at 9:46pm

गहराई का आलम जबरदस्त हो गया ।
सागर भी आपसे परस्त हो गया ।

साधारण शब्दों असाधारण भाव
असीम गहराई जिसमें दिल डूबे
तो डूब ही जाए ।
और जब दिल की भावनाएं ऐसी उड़ान
भरती हैं गीतों की तो आसमाँ भी
उसके आगे नमस्तक हो जाता है ,

अल्फाजों के यूँ तो कितने अमीर थे हम ,
नग्मा आपका पढ़के फ़कीर हो गए ।

बस इतना ही कहूँगा शब्द नही हैं इसकी तारीफ़ में ,
अनन्त शुभकामनाएँ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 24, 2013 at 8:27pm

आदरनीय अन्नपूर्णा जी , गिरिराज जी , गीतिका जी ..उत्साहवर्धक आपके शब्दों के लिए तहे दिल शुक्रिया ..भविष्य में भी आपका सहयोग ऐसे ही मिलता रहेगा ऐसी मेरी कामना है ..सादर धन्यवाद के साथ 

Comment by वेदिका on August 24, 2013 at 7:35pm

बढ़िया गजल हुयी है,, 

हो रहा बस अलावों का जिकर् ही

आग कब से दिलों में जल रही है,, क्या खूब कहा है ..वाह !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2013 at 5:59pm

आशुतोष भाई , अच्छी गज़ल हुई ,  बधाई !!

Comment by annapurna bajpai on August 24, 2013 at 5:45pm
आदरणीय आशुतोष जी उम्दा गज़ल के लिए हार्दिक बधाई ।

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