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तुम सोई

सपनों में खोई

अधर मंद मुस्काते हैं

ये सपने

चुपके से आकर

आखिर क्या कह जाते हैं।

 

बागों में

चंपा महकी है

मंद हवा

बहकी बहकी है

घनी रात को, तारे आकर

रूप नया दे जाते हैं।

 

रंग भरे

यह श्वेत चांदनी

कण कण में

इक मधुर रागिनी

नींद भरे बोझिल ये नयना

सुध बुध सब हर जाते हैं।

.

 - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 10:00pm

आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by रमेश कुमार चौहान on August 24, 2013 at 9:51pm

आपकी रचना ‘तुम सोई‘ बहुत सुंदर स्वप्न को साकार करती शब्दविन्यास से परिपूर्ण है । इस रचना हेतु आपको साधुवाद

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 9:31pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बहुत प्रोत्साहन मिला है।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 24, 2013 at 9:00pm

आ० बृजेश जी ,

ताजगी भरा , सुकोमल , सुन्दर गीत...

ये सपने

चुपके से आकर

आखिर क्या कह जाते हैं।...............वाह ! बहुत मासूमियत है इन स्वप्नों के अर्थाव्लोकन में 

बहुत बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 7:39pm

आदरणीय माथुर जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by D P Mathur on August 24, 2013 at 7:32pm

आदरणीय ब्रजेश सर , नमस्कार , आपको इस सुन्दर रचना की बधाई !


सपने , जो होते हैं अपने,
सपने, जो नही करते भेदभाव,
सपने, जो मिटाते है दरार,
सपने, जो सच करते हैं सपने,
असल में, ये ही होते हैं अपने ।

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 7:14pm

आदरणीय निकोर जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आई मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
सादर!

Comment by vijay nikore on August 24, 2013 at 7:09pm

आदरणीय बृजेश जी:

 

इस अति मनोहारी रचना के लिए कोटिश बधाई।

कई बार पढ़ी, और आनन्द लिया।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 7:06pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 7:05pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!

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