For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

पत्थर चुप हैं

वे ज्यादा बोलते नहीं

ज्यादा खामोश रहते हैं

 

खामोश रहना

जीवन की

सबसे खतरनाक क्रिया होती है

आदमी पत्थर हो जाता है

 

खामोशी का कोई भेद नहीं

कोई वर्गीकरण नहीं

बस,

दो शब्दों के

उच्चारण के बीच का अन्तराल

जहां कोई ध्वनि नहीं,

दो अक्षरों के बीच की

खाली जगह

जहां कुछ नहीं लिखा;

कोरा

 

ऐसे ही पत्थर होते हैं

जहां कुछ नहीं होता

वहां पत्थर होता है

 

कभी तुमने देखा है

ध्यान से

किसी पत्थर को

 

लोग कहते हैं

पत्थर जड़ होते हैं

 

तुम पहचानते हो

जड़ कैसी होती है

 

मैंने पहली बार देखी

जब वह बरगद

उखड़कर गिर गया था

जमीन पर

आंधियों के जोर में

हाँफ रही थी

जड़

सूखी, भूरी काली सी

निर्जीव सी

मुँह बाए

 

पत्थर ऐसा तो नहीं होता

आँधियाँ में

पत्थर उखड़ते नहीं

प्रतिरोध करते हैं

 

वह नदी के किनारे

जो पत्थर है

वह तो बिलकुल अलग है

सफेद चमकता

दूध में नहाया सा

 

रात को जब

पूरा गाँव सो जाता है

वह जागता है,

बतियाता है

चाँदनी से

हवा जब बहती है

तो आती है

उनकी फुसफुसाहट कानों तक

 

अपने अकेलेपन में

एक ही जगह खड़े-खड़े  

चल पड़ता है एक तरफ

धूप के संग-संग

न जाने क्या तलाशने

और फिर

कुछ दूर टहलने के बाद

वापस आ खड़ा होता है

उसी स्थान पर

 

 

जब बकरी

चरते-चरते

आ पहुँची थी

घर के करीब

मैंने महसूस किया

उसे मन के अंदर

एक ढेला फेंका था

बकरी की ओर

 

पत्थर अक्सर ढेला फेंकने पर

मजबूर करता है

लेकिन पत्थर खुद

ढेले जैसा नहीं होता

वह अलग होता है

बिलकुल अलग

 

यह अलगाव

महसूस करने की बात है

महसूस किए बिना

अन्तर नहीं समझा जा सकता

 

कभी महसूस किया है

सफर करते समय

बिलकुल सटे खड़े

दो व्यक्तियों में अंतर

 

हम महसूस ही नहीं कर पाते

इसीलिए रह जाते हैं

बहुत कुछ समझने से

पत्थर को भी

 

बहुत बार

बकरियाँ और मेमने

पहुँच जाते हैं

उसके आसपास की जमीन पर

चारे की तलाश में

लेकिन वह कुछ नहीं बोलता

भगाता नहीं उन्हें

वह समझता है

पेट की आग

छाँव की तलाश

 

कितनी चींटियाँ रहती हैं

उस पत्थर के नीचे

दरअसल चींटियाँ  

हमसे अधिक समझदार होती हैं

वो जान जाती हैं

मन की बात

झाँक लेती हैं आँखों में

 

कई बार गर्मियों में

तेज धूप में

मैं गया हूँ

उसके पास

वह बैठ जाता है

धूप की तरफ पीठ कर

और बिठा लेता है मुझे

अपनी गोद में

पत्थर दूसरों की

परेशानी समझता है

 

वह कठोर नहीं होता

मुलायम होता है

अंदर से

आसपास उगे

घास और जंगली फूलों की तरह।

उसके आसपास

बबूल नहीं होते। 

 

पत्थर

इंसान नहीं होते

भगवान का दूसरा नाम है।

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 760

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश नीरज on August 12, 2013 at 5:48pm

आदरणीय हेमन्त जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by राजेश 'मृदु' on August 12, 2013 at 4:19pm

बहुत ही चिंतनप्रधान रचना है, शुरुआत में ऐसा लगता है कि रचना एक आयाम वाली है लेकिन ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ा, यह कई आयामों में बंटती चली गई एवं हर आयाम बहुत ही पुष्‍ट, स्‍पष्‍ट एवं प्रत्‍यक्ष । आपकी इस कविता के माध्‍यम से कई बार कितनों ही तरीके से खुद से साक्षात्‍कार किया, बहुत ही अच्‍छी रचना है आदरणीय, सादर

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2013 at 10:22am

क्या बात है नीरज जी ! सारी अनुभूतियाँ-सारी संवेदनायें लगा जैसे एकसाथ आकर बगल में खड़ी हो गयी हों। पारदर्शी निगाह से किए गए अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण का परिणाम। .. पर लगता है यह रचना यूं चलते-चलते कमेंट करने वाली नहीं है। फुर्सत से आना पड़ेगा इसपर। (और फुर्सत अपने हाथ में नहीं होती) पर निश्चय ही बार-बार पढ़ने की इच्छा जगाने वाली रचना है। बधाई!

Comment by D P Mathur on August 12, 2013 at 9:14am

कितनी चींटियाँ रहती हैं

उस पत्थर के नीचे

दरअसल चींटियाँ  

हमसे अधिक समझदार होती हैं

वो जान जाती हैं

मन की बात

झाँक लेती हैं आँखों में

 

आदरणीय नीरज सर प्रणाम, आपकी यह रचना हमें अलग ढंग से सोचने को मजबूर कर रही है।यह सच ही है पत्थर सभी को किसी ना किसी तरह से बिना लालच सहायता ही करते हैं इस रचना को पढ़कर यह कहना शायद उचित होगा कि हम पत्थर को पत्थर समझते हैं लेकिन पत्थर आज के इंसानों को पत्थर समझता होगा क्योंकि आज सभी का दिल पत्थर का हो गया है। 

Comment by annapurna bajpai on August 11, 2013 at 11:23pm

पत्थर दूसरों की

परेशानी समझता है

 

वह कठोर नहीं होता

मुलायम होता है

अंदर से

आसपास उगे

घास और जंगली फूलों की तरह।

उसके आसपास

बबूल नहीं होते। 

 

पत्थर

इंसान नहीं होते

भगवान का दूसरा नाम है।............... इन पंक्तियों ने सबसे अधिक प्रभावित किया , आदरणीय बृजेश जी । वैसे तो आपकी रचनाएँ कमाल की होती है गूढ अर्थों को अपने मे समेटे हुए । रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।

Comment by hemant sharma on August 11, 2013 at 9:38pm

बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय ब्रजेश नीरज जी सादर

Comment by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 8:32pm

आदरणीय नीरज जी आपने मेरी रचना को समय दिया, इसके लिए आपका हार्दिक आभार!

कविता में मैंने ‘चुप्पी’ की बात की है ‘मौन’ की नहीं। आपके शब्दों को ही आधार मानें तो ‘मौन’ ध्यान का अंग हो तो अच्छा वरना तो यह नकारात्मक क्रिया है आदरणीय!

सादर!

Comment by Neeraj Nishchal on August 11, 2013 at 7:29pm

कविता में कई जगह बहुत ही मार्मिक बातें कह गए आप पर शुरुवात में आपकी कविता कुछ नकारात्मक भाव भी पैदा करती है क्यों की मेरे देखे मौन रहने से अच्छा गुण और कोई नही और इसी गुण को सिखाने के लिए हमारे मनीषियों ने हमे पत्थर के भगवान् दिए ये सिखाने को की देखो ये हैं कितने चुप चाप कितने शांत हैं भी और मानो नही भी हैं और जो होकर भी अपना नही होना जताता है वही परमात्मा है जो है पर अपने होने का दावा नही करता हमे पत्थरों की मूर्तियों से उनका मौन सीखना चाहिए पर हम उन्हें देखते ही कहाँ हैं उनके सामने जाते ही सर झुकाते हैं और पूजा जैसे उपद्रव में लग जाते हैं और उनकी शान्ति को महसूस करने से चूक जाते हैं और मै पत्थरों को जड़ नही कह सकता क्यों की अगर कण कण में है परमात्मा
तो किसी न किसी ताल पर हर एक कण चेतन है ..........
खैर कविता आपकी बहुत अच्छी है और प्रवाह तो बहुत ही सुन्दर है ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Apr 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Apr 29
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service