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जलते रहे चिराग हवाओं से जूझकर

जलते रहे चिराग हवाओं से जूझकर

जिन्दा रहे थे हम भी गम में यूं डूबकर

चलते रहे थे हम भी लिए दिल में आस ही

वरना ठहर से जाते कभी हम भी टूटकर

बहने लगे थे हम भी लहरों के साथ ही

अब करते भी भला क्या कश्ती से छूटकर

वो हमसफ़र थे अपने मगर फिर भी मौन थे

कटती नहीं हयात मेरे यारों रूठकर

ले जायेगा मुझे भी इक दिन वो दूर यूं

अपनों के नाम होंगे नहीं लव पे भूलकर

जब से हुई हवा ये हवादिश की ही तरह

पीने लगे हैं छांछ सदा हम भी फूंककर

पीते रहे थे आशु जमाने का हम जहर

अपनी पे आये हम तो बोले थे फूटकर

मौलिक व अप्रकाशित 

 

डॉ आशुतोष मिश्र , निदेशक ,आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश मो० ९८३९१६७८०१

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Comment by Shyam Narain Verma on August 8, 2013 at 5:20pm
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!
Comment by Ketan Parmar on August 8, 2013 at 4:33pm

MATRIK KRAM DENE KI KRIPA KARE SAHAB OR PRAYASH ACHA HAI AAPKA

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 8, 2013 at 3:46pm

आदरणीय आशुतोष सर जी कृपया बहर से अवगत करायें, प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें.

कृपया ध्यान दे...

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