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शब्द ही तो थे …
नयनों के झिलमिल
बिम्बों की भाषा
तरल सीकरों में
ढलती अभिलाषा

टूट तो जाने ही थे
अन्तस् के बंध;
विष  से उफनाये वे-
कटुता के छंद !
शब्द ही तो थे...

फट पडीं, ज्यों बेतरह
कपास की गाठें
चिंदी चिंदी  बिखर गये -
अनछुए अर्थ
विद्रोही पवन का
पाकर स्पर्श 
खुले अवगुंठन

 वह उद्दात्त मन का प्रस्फुटन!

शब्द ही तो थे…
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vinita Shukla on August 16, 2013 at 9:59pm

बहुत बहुत धन्यवाद, भ्रमर जी.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 16, 2013 at 8:11pm
चिंदी चिंदी  बिखर गये - 
अनछुए अर्थ
विद्रोही पवन का 
पाकर स्पर्श 
खुले अवगुंठन

 वह उद्दात्त मन का प्रस्फुटन!

शब्द ही तो थे…

आदरणीया विनीता जी खूबसूरत भाव ..सुन्दर शब्द बन्ध ...प्रभावी रचना
भ्रमर ५

Comment by Vinita Shukla on August 11, 2013 at 10:04pm

बहुत बहुत धन्यवाद, केवल प्रसाद जी.

Comment by Vinita Shukla on August 11, 2013 at 10:04pm

सराहना के लिए कोटिशः आभार, आदरणीय सौरभ जी.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 11, 2013 at 3:53pm

आ0 विनीता जी, वाह! वाह!  सादर प्रणाम! वास्विकता और सत्य के बंद में एक बेहतरीन रचना। हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर, 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 3:43pm

आदरणीया विनीताजी,  आपकी रचना संयत और सुगढ़ है. सही है, मन चोट नहीं खाता, सुनता है. 

बहुत बहुत बधाई 

Comment by Vinita Shukla on August 7, 2013 at 2:08pm

हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय विजय निकोर जी.

Comment by vijay nikore on August 7, 2013 at 10:13am

आदरणीया विनीता जी:

 

//शब्द ही तो थे...

फट पडीं, ज्यों बेतरह
कपास की गाठें
चिंदी चिंदी  बिखर गये -//
इस सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
 
सादर,
विजय निकोर
Comment by Vinita Shukla on August 5, 2013 at 8:55pm

हार्दिक आभार, आदित्य जी.

Comment by Vinita Shukla on August 5, 2013 at 8:54pm

धन्यवाद वसुंधरा! ओ. बी. ओ. के मंच पर, मिलना सुखद लगा ...हार्दिक स्वागत है..!!

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