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चांदनी फिर पिघलने लगी है

चांदनी फिर पिघलने लगी है
आँसुओं से धुली वो इबारत

गीत बनकर मचलने लगी है।

रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,

भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,

भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,

जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली

मेरी छत पे टहलने लगी है।

इक गजल पर तरह दी किसी ने,

भूला मुखड़ा पुनः गुनगुनाया
प्यार से साज की धूल झाड़ी,

मुद्दतों बाद फिर से उठाया
तार छेड़ें अभी या न छेड़ें,

सुर सजायें या कुछ और ठहरें
मन की पंचायतों में इसीपे

कशमकश रोज़ चलने लगी है।

जिस्म ठंडा पड़ा था सुमन का,

कुछ हरारत सी आने लगी है
कब की मुरझा चुकी खुश्बुओं में,

जिन्दगी कुलबुलाने लगी है
गोद में तितलियों को उठाये,

झांक खिड़की से देखा हवा ने
खोल कर बेबसी के किवाड़े

फिर खुले में निकलने लगी है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 5, 2013 at 12:35am

वाह! बहुत खुबसूरत रचना, आदरणीय सुलभ जी, बार बार पड़ने को मन करता है,   बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by वेदिका on August 4, 2013 at 9:24pm

क्या बात है, गीत की सुन्दरता के क्या कहने

आदरणीय सुलभ जी! शुभकामनाये लीजिये 

सादर !!

Comment by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 7:26pm

वाह! बहुत ही सुन्दर! बहुत ही कसा हुआ गीत! पाठक को टस से मस होने का मौका नहीं दिया। कुछ कहने को शेष नहीं। दस बार सोचा कि कहें क्या! बस हार्दिक आभार!

Comment by Sulabh Agnihotri on August 4, 2013 at 4:24pm

राणा जी !
अभिवादन !
आपके स्नेह से अभिभूत हूँ
आपका कथन उचित है। यह बात मेरे मन में भी आई थी। कश-म-कश हो चाहिये न कि क-शम-कश जैसा कि है।
पर जब कविता उतरती है तो वह पूरी तरह से हमारे नियंत्रण में नहीं होती है, और जब वह हमारे नियंत्रण में होती है तो वह मात्र तुकबन्दी होकर रह जाती है, किसी भी सर्जना को आत्मा तो कोई अदृश्य सत्ता ही प्रदान करती है। इस सच्चाई से आप भी दो-चार होते ही रहे होंगे। तो बस जैसा उतरा गीत वैसा मैंने पेस्ट कर दिया।
अपेक्षित सुधार किये दे रहा हूँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 3, 2013 at 10:45pm

आह ..बेहद ख़ूबसूरत गीत ,,सुलभ जी ..ढेर सारी दाद कबूलिये पहले ..फिर आगे की बात रखता हूँ 

रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,

भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,

भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,

जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली

मेरी छत पे टहलने लगी है।

एक एक बिम्ब आनंद्दाई है .....रोते रोते शिशु सा पस्त होना ....अपने आप में ही एक सम्पूर्ण गीत है 

अगले दो बंद में भी ....कुछ इसी तरह की कारीगरी की गई है .........मन की पंचायत और गोद में तितली.......बस कमाल है 

इस गीत ने मंच को समृद्ध किया है|

बहुत बहुत बधाई|

एक सुझाव है .....पसंद आये तो रखें अन्यथा उड़ा दें,,,,,,,"कशमकश" को गलत वज्न में बांधा गया है 

उस पंक्ति को (इक कशमकश सी चलने लगी है।) 

कशमकश कोई चलने लगी है " करने से कैसा रहेगा..

कृपया ध्यान दे...

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