For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नीरज, बहुत दिन बाद आए

जेठ में भी

बादल दिख गए

पर तुम नहीं दिखे

 

हमारा साथ कितना पुराना

जब पहली बार मिले थे

तभी लगा था

पिछले जनम का साथ

करम लेखा की तरह

अनचीन्हा नहीं था

 

तुम्हारे न रहने पर

बहुत अकेला होता हूँ

किसी के पास

समय नहीं

समय क्या

कुछ भी नहीं

दूसरों के लिए

दिन काटे नहीं कटता

 

तुम नहीं थे

मैं जाता था बतियाने

पेड़ से

 

तुम्हें याद है न

अपना पुराना साथी

वह पेड़

जो है मैदान के दूसरे छोर

घना

चौड़ा तन

लंबी भुजाएं

गहरी छांव

बिलकुल मेरे पिता जैसा

 

तुम न थे

उसके संग ही रहता

बहुत बातें की हमने

देश, दुनिया की

मेरी, तुम्हारी

गाँव की

पंचायत की

नदी की

हवा की

जब खाली समय हो

बहुत बातें निकलती हैं

इधर उधर की

दूसरे के फटे कपड़े से

शरीर दिख ही जाता है

सभी को

 

अबकी पतझड़ में

पत्ते झड़ गए

उस पेड़ के

तुम्हें खबर तो भेजी थी

बुधई से

जा रहा था तुम्हारी तरफ

दोना बनाने को ढाक लेने

कहा था उससे

तुम मिलो तो यह भी बता देना

अबकी आम में

बौर नहीं आए

कटहल भी सूख गया

आंधी आयी थी तो

काफी भूसा उड़ गया

चारा

बाजार से खरीदना होगा

 

संदेसा न भिजवाता

मैं खुद ही आता

लेकिन क्या करें

नदी का पुल टूट गया

नदी सूखी है

फिर भी

उस पर चलकर

आना नहीं हो सका

एक तो

ऊँचे कगारों से

एक तरफ सम्हलकर उतरना

दूसरी तरफ सम्हलकर चढ़ना

इतनी सम्हाल नहीं होती

हाँफ जाता हूँ

जरा पाँव

ऊँच नीच पड़े

भहराकर गिरने का

खतरा अलग

ऊपर से

रेत पर होकर गुजरना

जानते हो

जेठ में

रेत कितनी तपती है

पैर में छाले पड़ जाते हैं

चला नहीं जाता

कई दिनों तक

गरम पानी से सेंको

तब राहत मिले

 

अच्छा ही हुआ

मैं नहीं गया

बुधई कह रहा था

तुम मिले नहीं

कहीं गए हो

कहां, किसी को पता नहीं।

 

तुम जानते हो

मेरे तुम्हारे यहाँ की

दूरी कितनी है

लौटने में

सांझ हो जाती है

मैं जाता

तुम न मिलते

तो रात

बियाबान में काटनी पड़ती

उल्लुओं, चमगादड़ों के साथ

 

तुम कहाँ गए थे?

यूँ बिना बताए जाना

ठीक नहीं

चिन्ता होती है

और अकेले क्यों गए भला

अकेले जी नहीं ऊबता?

मेरा तो ऊबता है

 

इधर बहुत लोग

चले गए

रामगोबिन्द

बुधई की महतारी

बहुत लोग

कहां गए

किसी को पता नहीं

 

जो साथ हैं

उनका अचानक चले जाना

बहुत अखरता है

मन को

 

वह भूरी बिलार थी न

नहीं दिखती अब

पीपर के पास वाला

करिया कुकुर भी

आजकल नहीं दिख रहा

खिलावन की भैंस भी

एक दिन चरते चरते

निकल गयी कहीं दूर

बहुत परेशान था

बहुत ढूंढा

नहीं मिली

 

बहुत कुछ बदल गया इधर

कई बाग खेत बन गए

कई खेत में मकान उग आए

हवा ने

इधर आना बंद कर दिया

टहलने को जगह नहीं बची

सरपत बहुत उग आए हैं

बतियाने को भी कोई न था

बबूल रह गए हैं बस

मन ऊबता था बहुत

 

अच्छा हुआ

तुम लौट आए

हम फिर बैठेंगे

साथ साथ

लेकर ढेर सारी बातें

लइया, चना, गुड़

और हरी मिर्च की चटनी।

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

Views: 789

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by coontee mukerji on July 29, 2013 at 5:58pm

अकसर शरद मुझे ओबीओ की रचनाएँ  पढ़कर सुनाते है, इससे मुझे शब्दों को कैसे उच्चारित करते हैं ,सीखने को मिलता है.और कैसे रचनाएं पढ़ी जाती है. कल मुझे एक रचना पढ़कर सुनाने लगे,उसके बाद पुछा ''अब बताओ यह किसकी रचना है.''

मैंने फिरसे पढ़ने का अनुरोध किया तब मेरे मुख से निकला यह हो शत प्रतिश्त बृजेश जी का है मैं शर्त लगा सकती हूँ...और मेरी बात सच निकली....फिर उसने पुछा तुम कैसे कह सकती हो?...मैंने कहा ''य्ही तो ....सीक्रेट है.''  उनको तो नहीं बताया .बृजेश जी आपभी पूछिये तब सोचूँगी.........इतना सजीव चित्र मैं तो उसमें संग संग जी रही थी.....कवि वही जो भाव बिंदु की आत्मा की गहराई तक पहूँच जाय....और पाठक उस क्षण में जी उठे. इस सुंदर जीवंत रचना के लिये मेरी हार्दिक आभार स्वीकार कीजिये.

Comment by ram shiromani pathak on July 28, 2013 at 5:45pm

जब खाली समय हो

बहुत बातें निकलती हैं

इधर उधर की

दूसरे के फटे कपड़े से

शरीर दिख ही जाता है

सभी को //..///////////////.अनुपम ,अद्भुत रचना शब्द नहीं है क्या कहूँ भाई

आदरणीय ब्रिजेश भाई आप ऐसे विचार कहा से पाते है !!सच में आपकी रचना ने बहुत याद दिलाई गाँव की ////बहुत बहुत आभार ///माँ सरस्वती की कृपा बनी रहे ///शुभ शुभ

Comment by बृजेश नीरज on July 28, 2013 at 1:15pm

आदरणीय वंदना जी आपका हार्दिक आभार!
अतुकांत में जब हम बिम्बों के सहारे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं तो वस्तुतः ऐसा होता है जैसे रस्सों के सहारे पहाड़ पर चढ़ना। जहां एक रस्सा खतम हुआ झट दूसरा रस्सा पकड़ लिया। इस चढ़ने में अर्ध और पूर्ण विराम का अवसर नहीं होता। इसके बारे में सोचा नहीं कि झट नीचे गिरे।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on July 28, 2013 at 1:11pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Vindu Babu on July 28, 2013 at 10:54am
वाह बहुत खूब!
कल्पना की सैर कराके ऐसी पटकी लगाई आपकी रचना ने... कि यथार्थ के धरातल में गड़ के रह गई।
बहुत ही सटीक सामाजिक बिम्बों को प्रस्तुत किया है आपने,अनेक अवहेलित पर शोचनीय पहुलुओं को एक सूत्र में पिरोया हुआ देख अच्छा लगा।
सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय।
एक निवेदन करना चाहूंगी आदरणीय,वह यह कि चिन्ह/विराम चिन्ह हमारी अभिव्यक्ति को सुस्पष्ट बनाने में सहयोग करते हैं, ऐसा मेरा मत है।
पर आपकी रचनाओं में अधिकांशत: इनका अभाव रहता है,ऐसा क्यों?सादर जानना चाहूंगी महोदय
सादर
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 28, 2013 at 10:39am

बहुत  ही सहज  व्  अंतर्मन की  गहराई में पहुँच कर रचित, रचना पर आपको हार्दिक बधाई ...आदरणीय बृजेश जी  

Comment by बृजेश नीरज on July 28, 2013 at 6:37am

आदरणीय शरदिंदु जी आपका हार्दिक आभार! प्रकृति का सानिध्य सभी को मन भाता है। मुझे गाँव में रहने का बहुत मौका नहीं मिला शायद इसीलिए कलम बार बार उधर निकल जाती है।
आपका एक बार फिर हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 28, 2013 at 12:31am

//

जब खाली समय हो

बहुत बातें निकलती हैं

इधर उधर की

दूसरे के फटे कपड़े से

शरीर दिख ही जाता है

सभी को //.....असाधारण अभिव्यक्ति

//

बहुत कुछ बदल गया इधर

कई बाग खेत बन गए

कई खेत में मकान उग आए

हवा ने

इधर आना बंद कर दिया //.....बहुत खूब बृजेश जी. आधी रात में आपकी यह रचना पढ़कर कैसा महसूस हुआ क्या बतलाऊँ !! मन विचरने चला गया - वहाँ, जहाँ //

टहलने को जगह नहीं बची

सरपत बहुत उग आए हैं //

आपको बहुत क़रीब से देखने का, जानने का मौका मिल रहा है- आपको भी, आपके द्वारा चित्रित गाँव को भी. आपकी उदात्त अभिव्यक्ति के लिये आपका ऋणी रहूंगा. सादर.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
7 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
7 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब,  ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है और आपकी तारीफें वो ए'ज़ाज़…"
7 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज भाईजी के प्रधान-सम्पादकत्व में अपेक्षानुरूप विवेकशील दृढ़ता के साथ उक्त जुगुप्साकारी…"
9 hours ago
Ashok Kumar Raktale commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . लक्ष्य
"   आदरणीय सुशील सरना जी सादर, लक्ष्य विषय लेकर सुन्दर दोहावली रची है आपने. हार्दिक बधाई…"
9 hours ago

प्रधान संपादक
योगराज प्रभाकर replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"गत दो दिनों से तरही मुशायरे में उत्पन्न हुई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की जानकारी मुझे प्राप्त हो रही…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"मोहतरम समर कबीर साहब आदाब,चूंकि आपने नाम लेकर कहा इसलिए कमेंट कर रहा हूँ।आपका हमेशा से मैं एहतराम…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"सौरभ पाण्डेय, इस गरिमामय मंच का प्रतिरूप / प्रतिनिधि किसी स्वप्न में भी नहीं हो सकता, आदरणीय नीलेश…"
10 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय समर सर,वैसे तो आपने उत्तर आ. सौरब सर की पोस्ट पर दिया है जिस पर मुझ जैसे किसी भी व्यक्ति को…"
11 hours ago
Samar kabeer replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"प्रिय मंच को आदाब, Euphonic अमित जी पिछले तीन साल से मुझसे जुड़े हुए हैं और ग़ज़ल सीख रहे हैं इस बीच…"
15 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय अमीरुद्दीन जी, किसी को किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है. दुराग्रह छोड़िए, दुराव तक नहीं…"
18 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)
"अपने आपको विकट परिस्थितियों में ढाल कर आत्म मंथन के लिए सुप्रेरित करती इस गजल के लिए जितनी बार दाद…"
19 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service