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रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

२ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २ 

बहर ----रमल मुसम्मन सालिम

 रदीफ़ --हम देखते हैं 

काफिया-- इयाँ 

आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं 

जश्ने हशमत या मुसल्सल  पस्तियाँ हम देखते हैं 

 

खो गए हैं  ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में 

गर्दिशों  में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं 

 

ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में डूबी फिजाएं 

आज शाखों से लटकती बिजलियाँ हम देखते हैं 

 

आबशारों का तरन्नुम गुम हुआ जाने कहाँ अब 

तिश्नगी में फड़फडाती मछलियाँ हम देखते हैं 

 

बह गए मिलकर सभी पुखराज गिर्दाबे अलम में

बस किनारों पर सिसकती सीपियाँ हम देखते हैं 

 

आज होठों की तबस्सुम खो गई जाने कहाँ पर 

सख्त चहरों पर सभी के तल्खियाँ  हम देखते हैं  

क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो 

रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं 

 

“राज” तेरे  शह्र  पर ये छा  गई कैसी घटायें

हर कदम पे अब धुएं की चिमनियाँ हम देखते हैं 

                                     राजेश कुमारी "राज" 

****************************************      

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

जश्न ए हशमत--- गौरव का उत्सव 

पस्तियाँ--- पराजय 

यास----- गम ,उदासी 

तीरगी------ अँधेरे 

आबशारों---- झरने 

तिश्नगी----- प्यास 

गिर्दाबे अलम------ गम के भंवर 

तल्खियाँ-----  उदासी ,चिंताएं 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 21, 2013 at 12:19pm

क्षमा प्रार्थी हूँ , राज बहन , मै राज के अर्थ से भ्रमित हो गया , मेरे नाम मे भी "राज " होने के कारण !! आगे ख्याल रखूंगा !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 21, 2013 at 11:32am

आदरणीय डॉ आसुतोष मिश्र जी पुनः आपका हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 21, 2013 at 11:32am

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी तहे दिल से आभार आपका ग़ज़ल आपको पसंद आई ,और हाँ  मैं राज भाई नहीं बहन हूँ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 15, 2013 at 10:49am

इस ग़ज़ल को पुनः पढने की इच्छा फिर मुझे यहाँ ले आयी ..सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 12, 2013 at 10:31am
वाह राज भाई , पूरी ग़ज़ल लाजवाब , वाह !!
क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 25, 2013 at 10:46am

अरुण श्रीवास्तव जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती से दिल खुश हुआ तिस पर आपकी प्रतिक्रिया से ग़ज़ल धन्य हुई तहे दिल से आभार 

Comment by Arun Sri on July 25, 2013 at 10:42am

अरे वाह ! क्या उम्दा गज़ल हुई है ! इतनी प्रभावशाली गज़ल आपकी संभवतः पहली बार पढ़ रहा हूँ ! और सच कहूँ कहन की गहराई ने दिल खुश कर दिया ! वाह !


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Comment by rajesh kumari on July 24, 2013 at 9:55pm

आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी ग़ज़ल सराहने और प्रतिक्रिया देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 24, 2013 at 9:51pm

पियूष द्विवेदी जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया से हर्षित  हूँ तहे दिल से आभारी हूँ |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 24, 2013 at 9:48pm

आदरणीया अन्नापूर्णा जी आपको टिपण्णी से अभिभूत हूँ तहे दिल से शुक्रिया सब इसी मंच से मिला है 

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