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नियमों की सरहदें

नियमों की सरहदें

 

उलझी हुई मानवीय अपेक्षाओं से अनछुआ

तुम्हारे लिए मेरा काल्पनिक अलोकित स्नेह

किसी सांचे में ढला हुआ नहीं था,

और न हीं वह पिंजरे में बंद पक्षी-सा

कभी सीमित या संकुचित था लगा।

 

एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम

दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,

कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,

और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं

हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।

 

शैतान हँसी की हल्की-सी फुहार लिए,

तुमने मेरे लिए अपनी आँखें बिछा दीं

और हम दोनों को लगा कि हमने

कल्पनातीत उस स्वर्णिम पल में

रिश्तों के नियमों की सरहदें लांघ ली...

 

                      -------

                                      - विजय निकोर

                                        २५ जून, २०१३

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 770

Comment

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Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 3:20pm

आदरणीय अरुण जी:

 

कविता की सराहना के लिई आपका शत-शत आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 2:15pm

आदरणीय राजेश जी:

 

//बहुत ही डूब के लिखी गई रचना है, ऐसा प्रतीत होता है कि सारा कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा है,//

 

इन मनोहारी शब्दों से रचना के अनुमोदन के लिए मैं आपका आभारी हूँ।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 2:13pm

आदरणीया कुंती जी:

 

इस रचना को सराहना प्रदान करने के लिए मेरा हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 2:10pm

आदरणीय सौरभ भाई:

 

आपका अतिशय आभार , बार-बार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on July 5, 2013 at 2:08pm

आदरणीय बृजेश जी:

 

// वाह! बहुत सुन्दर! सुन्दरता से भाव पिरोए आपने! //

 

यह कह कर आपने मेरी रचना को सार्थक कर दिया है। आभारी हूँ।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 10:02pm

वाह! बहुत सुन्दर! सुन्दरता से भाव पिरोए आपने!
हार्दिक बधाई!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2013 at 9:01pm

पल विशेष की पुलकन को प्रबुद्ध पंक्तियाँ प्राप्त हुई हैं.

शुभ-शुभ

Comment by coontee mukerji on July 4, 2013 at 7:43pm

बहुत सुंदर रचना .

एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम

दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,

कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,

और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं

हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।

प्रेम ही आनंद,

प्रेम ही चिरंतन,

सादर

कुंती

Comment by राजेश 'मृदु' on July 4, 2013 at 1:52pm

बहुत ही डूब के लिखी गई रचना है, ऐसा प्रतीत होता है कि सारा कुछ आंखों के सामने घटित हो रहा है, सादर

Comment by vijay nikore on July 4, 2013 at 12:05pm

आदरणीय जितेन्द्र जी:

 

//अति प्रेम में रिश्तों के नियमों की हद लांघ जाते है, यह वास्तविकता है! बहुत खूबसूरत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई//

 

आपकी सराहना मन को आनंदानुभुति से स्पंदित कर गई। हार्दिक आभार, आदरणीय।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

 

 

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