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तो बंजरों में ही कश्ती चलाना अच्छा है

ग़मों में आपका यूँ मुस्कुराना अच्छा है

हंसी लबों पे रक्खे गम छुपाना अच्छा है  

 

कोई कभी जो पूछे है सबब यूँ हंसने का  

छुपा के चश्मेतर तो खिलखिलाना अच्छा है

 

मुझे तो हर घडी ये गलतियाँ बताता रहा

कोई कहे बुरा चाहे ज़माना अच्छा है

 

ग़ज़ब हैं खेल ये तकदीर के किसे क्या कहें  

खुद अपने आप से ही हार जाना अच्छा है

 

वो जिसकी चोट से दिल जार जार रोया था

उसी की राह से पत्थर उठाना अच्छा है

 

महल न घर न मुझको आशियाना कोई मिले

मेरे लिए तो तेरा दिल ठिकाना अच्छा है

 

लिपट के खूब तू रोया था उससे बिछड़ा जब

उसी का हँस के ऐसे दिल जलाना अच्छा है

 

अगर हो डर के समंदर में डूब जायेंगे

तो बंजरों में ही कश्ती चलाना अच्छा है

 

किसी को गर्दिशे दिल आपका पता न चले

यूँ “दीप” रात भर घर में जलाना अच्छा है

 

संदीप पटेल “दीप”

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 3, 2013 at 12:27pm

आदरणीय जीतेंद्र जी आपका बहुत बहुत आभार इस हौसलाफजाई के लिए स्नेह यूँ ही बनाये रखिये 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 3, 2013 at 12:25pm

वाह वाह आदरणीय वीनस सर जी हम आपके ऐसे ही फेन नहीं है 

इस जानकारी से देखिये अरुज की क्या जानकारी हाथ लगी ........अब पूरी ग़ज़ल के मायने मुझे समझ आ रहे हैं 

यकीन मानिए मैंने जो आपसे सीखा है अब तक वो सब मैं हमेशा याद रखता हूँ 

ग़ज़ल कहते हुए मुझे ख्याल आता है के आपने क्या नसीहत दी है 

ये स्नेह यूँ ही बनाये रखिये साहब 

आपका बहुत बहुत आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 3, 2013 at 3:20am
"महलन घरन मुझको आशियाना कोई मिले

मेरेलिए तो तेरा दिल ठिकानाअच्छा है

लिपट के खूब तू रोया था उससे बिछड़ा जब

उसी का हँस के ऐसे दिल जलाना अच्छा है"".......आदरणीय...संदीप भाई, वाह! बहुत खूब...क्या शानदार शेअर,, भाई जी तहे दिल से दाद कुबूल भी लीजीऐ
Comment by वीनस केसरी on July 2, 2013 at 11:25pm

और स्पष्ट करने के लिए = 

१२१२ / ११२२ / १२१२ /  ११२२ ...   अरूज़ के हवाले से यह अरकान दो बहर में जिहाफ लाने से बन सकता है  >>

मुजारे

हजज      /   रमल      /  हजज    /    रमल                 < मूल रुक्न का युग्म  

१२२२      /   २१२२     /  १२२२   /     २१२२                   मूल मात्रा

१२१२        /   ११२२      /   १२१२   /    २२ या ११२               जिहाफ के बाद मात्रा


मफाईलुन् / फायलातुन्  / मफाईलुन्  / फायलातुन्               <  मूल अरकान


मफ़ाइलुन / फइलातुन   / मफ़ाइलुन  / फैलुन या फइलुन         जिहाफ के बाद अरकान

मक्बूज    /  मख्बून     /  मक्बूज     / अब्तर या मख्बून मह्जूफ़      जिहाफत

मुजारे मुसम्मन मक्बूजो मख्बूनो मक्बूजो अब्तर/मख्बूनो मह्जूफ़     बहर का नाम  

===============================================
 
मुज्तस

रजज    /    रमल   /     रजज   / रमल                             मूल रुक्न का युग्म  

२२१२    /    २१२२  /    २२१२   /   २१२२                                 मूल मात्रा

१२१२    /     ११२२  /    १२१२   /   २२ या ११२                           जिहाफ के बाद मात्रा     

मुस्तफ्यलुन् / फायलातुन्  /  मुस्तफ्यलुन् / फायलातुन्                मूल अरकान

मफ़ाइलुन    /  फइलातुन  /   मफ़ाइलुन   / फैलुन या फइलुन          जिहाफ के बाद अरकान

मख्बून       /   मख्बून    /    मख्बून     / अब्तर या मख्बून मह्जूफ़       जिहाफत

मुज्तस मुसम्मन मख्बूनो मख्बूनो मख्बूनो अब्तर/मख्बूनो मह्जूफ़       बहर का नाम  

Comment by वीनस केसरी on July 2, 2013 at 11:12pm

भाई आपका प्रयास कहीं से गलत नहीं है मगर अधूरी जानकारी में असफल हो गया

आप कहते हैं आपने रजज और हजज के मेल से बाहर बनाई - 

// अंतिम जिहाफ २ २ बहरे हजज के हिसाब से नहीं आ पायी //


अर्थात आपने हजज को अंत में रखा 
अर्थात मूल रुक्न ये लिया - 
२२१२ १२२२ २२१२ १२२२ 

// मैंने बहरे रजज का मखबून जिहाफ लिया है 2212-1212 //


आपने रजज में मख्बूनो मख्बून लगाया तो हुआ  = १२१२ १२२२ १२१२ १२२२ 


// हजज में महजूफ से बने १२२ पर अस्लम जिहाफ लिया है //

यहाँ आपने गडबड कर दी क्योकि हजज के अरूजो जरब में मह्जूफ़ लगा कर १२२ तो कर सकते हैं मगर फिर इस पर असलम नहीं लगा सकते क्योकि फईलुन (१२२) को असलम से फैलुन (२२) करने का स्थान केवल सदरो इब्तिदा है न कि हाश्वैन और अरूजो जरब   
इसलिए 
१२१२ १२२२ १२१२ १२२२
को
१२१२ १२२२ १२१२ २२

नहीं किया जा सकता है 

फिर आपने यह नहीं बताया कि पहले मुफाईलुन को मफईलुन कैसे करते ? क्योकि हाश्वैन तो क्या किसी भी अज्जा-ए-रुक्न के लिए हजज में यह जिहाफ है ही नहीं ...

अगर आप जिहाफ पर काम करना चाहते हैं तो यह कदापि बुरा नहीं है बल्कि मुझे बेहद खुशी हो रही है
मगर पहले जिहाफ की मूल जानकारी ले ली जाए और उन पर जेहन को साफ़ कर लिया जाए फिर प्रयोग किया जाए तो जियादा मुफीद होगा और ऐसी विषम परिस्थिति नहीं पैदा होगी ...

मेरे ख्याल से अरूज बनाने वालों ने पहले ही सारी सूरतों पर काम कर लिया है .. अब शायद ही कोई सूरत बची हो जिस पर चल कर हम नए और सही निष्कर्ष तक पहुँच सकें ... 

फिर भी आपसे यह चर्चा करके मुझे बेहद खुशी हो रही है कि अब ओ बी ओ पर कोई  जिहाफ पर काम करने का मन बना रहा हैं 

मेरी और से असीम शुभकामनाएं 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2013 at 10:29pm

आदरणीय सौरभ सर जी , आदरणीय वीनस सर जी ...आप सभी के मार्गदर्शन से ही यह संभव हुआ है के मैं कुछ लिख पा रहा हूँ 

ये स्नेह यूँ ही बनाये रखिये 

आपकी प्रतिकियाओं से लेखन को बल मिलता है ......सादर आभार आपका 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2013 at 10:22pm

आदरणीय वीनस सर जी यदि आपके कहे को अन्यथा लिया होता तो आज इतना लिख ही नहीं पाता ..........
मैंने बहरे रजज का मखबून जिहाफ लिया है 2212-1212 मुझे ये जानकारी नहीं थी के एनी जिहाफ नहीं लिए जा सकते हैं इसीलिए चूक हो गयी लगता है .............रजज में मखबून और हजज में महजूफ से बने १२२ पर अस्लम जिहाफ लिया है

लेकिन अब की बार आपके कहे को याद रखूँगा ऐसा कुछ भी नहीं चलेगा ............प्रचलित बह्र पर ही काम करना ठीक है

शायद मुझे चैन नहीं पड़ता प्रयोग किये बिना ......खुदी कहो खुदी समझो वाली बात से बचने का ख्याल कभी कभी दिमाग में आता ही नहीं

इतना वक़्त देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार स्नेह यूँ ही बनाए रखिये  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 2, 2013 at 10:20pm

भाई वीनसजी, अपने हिसाब से बह्र के अर्कान बनाना या प्रचलित बह क इस्तमाल दोनों दो बातें हैं. यहाँ बह्र घोषित है.

भाई संदीपजी ने प्रयास तो किया है.

संदीप भाई को हमने फ़र्श से देखा है आपकी संभावनाओं पर दो राय नहीं. प्रयास धीरे-धीरे सँवरता हुआ रंग लायेगा. लेकिन संयत होना जरूरी है.

इस वार्तालाप से कई बातें स्पष्ट हुई हैं. अरुज की भी और व्यवहार की भी.

शुभ-शुभ

Comment by वीनस केसरी on July 2, 2013 at 10:04pm

भाई जिहाफ की अपनी दुनिया है ..

जो जिहाफ हजज और रमल पर लगता है जरूरी नहीं है कि रजज पर भी लग जाये 

उदाहरण =
जैसे मूल रुक्न के अंत को लुप्त करने पर हज्फ़ जिहाफ बनता है जिसकी क्रिया को महजूफ  कहते हैं ये तो शायद अपने भी जान लिया है 

मगर इसके साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि हज्फ़जिहाफ केवल उन अरकान पर लगते हैं जिनके अंत में दो अथवा दो से अधिक दीर्घ आते हों 
अर्थात - १२२२ और २१२२ के अंत में दो या दो से दीर्घ हैं इसलिए इनको मह्जूफ़ जिहाफ से १२२२ - १२२ और २१२२ - २१२ किया जा सकता है परन्तु २२१२ में मह्जूफ़ जिहाफ लग ही नहीं सकता क्योकि इसके अंत में मात्र एक दीर्घ है

साथ ही हर जिहाफ का एक निश्चित स्थान है अर्थात हम जिस हज्फ़ जिहाफ को रमल मुसम्मन सालिम  के अंत में लगाते हैं और २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ से २१२२ २१२२ २१२२ २१२ कर लेते हैं उसे प्रयोग करते हुए २१२ २१२२ २१२२ २१२२ कदापि नहीं कर सकते ....  

खैर ये तो बहुत आगे की बात हुई ...
अब ज़रा ये देखिये कि आपसे चूक कहाँ हुई ...

आपने कहा - 

बहरे रजज  और हजज के जिहाफ इस्तेमाल करके कुछ लिखूं किन्तु अंतिम जिहाफ २ २ बहरे हजज के हिसाब से नहीं आ पायी फिर भी लिख दिया 

अब ज़रा सोचिये क्यों नहीं आई - 
हमारा यह प्रचलित अरकान  १२१२ ११२२ १२१२ २२ दो मूल बहर के जिहाफ के कारण बन सकता है 

मुजारे  = मफाईलुन् फायलातुन् मफाईलुन् फायलातुन् = हजज रमल हजज रमल 

मुज्तस = मुस्तफ्यलुन् फायलातुन् मुस्तफ्यलुन् फायलातुन् = रजज रमल रजज रमल 


मगर आपने इस अरकान का निर्माण करने के लिए रजज और हजज का प्रयोग करने की कोशिश की ....
आपने पता नहीं किसे पहले रखा किसे बाद में मगर इन दो मूल रुक्न के मेल से ये १२१२ ११२२ १२१२ २२ कैसे तैयार हो सकता है ये असंभव है ...

निवेदन है कि हमें अभी जिहाफ के फेर में न पड कर प्रचलित अरकान पर अभ्यास करना चाहिए, जब उस स्तर पर पहुंचेंगे तो जिहाफ से भी दो दो हाँथ किया जायेगा 

कुछ अनुचित कह गया होऊं तो निवेदन है अन्यथा न लीजियेगा 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2013 at 9:22pm

आदरणीय शिज्जू जी, आदरणीय वीनस जी आदरणीय सौरभ सर जी , आदरणीय बसंत नेमा जी , आदरणीय आशुतोष जी , आदरणीय प्रज्ञा जी आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया ये स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर 

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