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मैं नदी –
पहाड़ों से उतरी,
उन्मुक्त बहती
कल कल करती मतवाली
मैं नदी -
गाँव खलिहानों से होती
बच्चों की किलकारियों सी,
खेतों में ठुमकती
मैं नदी -
सरदी की धूप,
षोडसी की चोटी सम लम्बी
लहराती इठलाती बलखाती
मैं नदी जो कभी थी.
2
समय का बदलता रूप -
हाइटेक का ज़माना,
तरक्की की चरमसीमा,
बलिदान स्वरूपा
मैं नदी अधुना.

झुलसती गरमी
बीच शहर,
कूड़े का ढेर
अछूत सी पड़ी,
मैं नदी अधुना.

सीवर का पानी
रगों में बहता,
मुँह मारता श्वान,
मैं नदी अधुना.

नाना रोगों से ग्रस्त,
केंसर का मरीज,
पुल के नीचे ठहरी,
मैं नदी अधुना.

ध्यान लगाती,
आत्मा को टटोलती,
सागर मिलन को तरसती,
मैं नदी अधुना.

3
मेरा भविष्य -
कौन नदी ? कैसी नदी ?
विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में
प्रश्नचिह्न अनेक ? ? ?
कविता की किताबों में
लिखी मेरी हसीन गाथा,
सरकारी दस्तावेज़ों में
मेरा धुंधला अस्तित्व !
आने वाली पीढ़ी
धरती खंगालेगी,
नाले के पानी पर
लम्बी चौड़ी रिपोर्ट लिखेगी
मैं नदी, यही मेरा भविष्य !

4

परिणाम –
इस अवहेलना का
प्रतिकार कर जाऊँगी,
मिटते मिटते
मानव सभ्यता को
मिटने का
पुरस्कार देती जाऊँगी.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)

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Comment

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Comment by aman kumar on June 24, 2013 at 9:40am

मिटते मिटते 
मानव सभ्यता को
मिटने का

आपका लेखन सही दिशा मे है पर मुझे लगता है ये भारत के संधर्व मे ही है यूरोप अमेरिका मे नदियों की दशा इतनी बुरी नही है .........

Comment by vijay nikore on June 24, 2013 at 8:36am

आदरणीया कुंती जी:

 

तीन दिन से व्यस्तता के कारण obo पर समय न दे सका।

अभी-अभी आपकी रचना पढ़ी, अच्छी लगी।

 

//मैं नदी -
गाँव खलिहानों से होती
बच्चों की किलकारियों सी,//

 

//ध्यान लगाती,
आत्मा को टटोलती,
सागर मिलन को तरसती,
मैं नदी अधुना.//

 

//मिटते मिटते
मानव सभ्यता को
मिटने का
पुरस्कार देती जाऊँगी.//

 

बहुत ही सुन्दर भाव हैं।

आपको बधाई, कुंती जी।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by ram shiromani pathak on June 23, 2013 at 12:41pm

वाह वाह आदरणीया कुन्ती जी बहुत ही सटीक और सुन्दर चित्रण किया है अपने ****हार्दिक बधाई आपको ***सादर 

Comment by coontee mukerji on June 23, 2013 at 11:58am

राजेश कुमारी जी ,आपकी सुझाव सर आखों पर.अपनी किताब के लिये मैं ठीक कर लूँगी .आभार .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 22, 2013 at 9:51pm

प्रिय कुंती जी नदी के स्वरुप को और मानव की स्वार्थपरता के परिणाम स्वरुप बदतर होते हुए हाल को भविष्य के परिणाम को अतुकांत कविता के रूप में सुन्दर शब्दों से बाँधा है  सभी क्षणिकाएं शानदार हैं एक गुजारिश है दूसरी क्षणिका में मैं नदी अधुना.वाक्य की पुनरावृत्ति प्रवाह को और शिल्प को  ख़राब कर रही हैं संभव हो सके तो ये वाक्य दूसरी क्षणिका के अंत में एक बार लें,फिलहाल इस सुन्दर सार्थक प्रस्तुति हेतु बधाई 

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