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आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।

2122, 2122, 2122, 212 

चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही

याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही

 

सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते हुए

भावना तो संग मेरे मौन बस तकती रही

 

ये सुबह भी रात का आभास देती है मुझे

इन उजालों में अंधेरे की लहर दिखती रही

 

दर-ब-दर हो हम तुम्हारे प्यार को ढूंढा किए

प्रेम की इक ओढ़ चादर वासना फिरती रही

 

आंख ने तो अब सपन ही  देखना चाहा नहीं

नींद ये फिर भी मुझे बदनाम ही करती रही

 

खोजता मैं फिर रहा हूं मस्तियां वो गांव की

भीड़ अब इस शहर की हर पल मुझे छलती रही

छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही

                     - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 7:56pm

जी आदरणीय! प्रयासरत हूं किसी न किसी दिन तो यह विधा पकड़ में आ ही जाएगी!
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2013 at 7:54pm

एक जगह तकाबुले रदीफ़ का भी दोष बन रहा है, भाईजी.. .

मगर कहते हैं न .. धीरे धीरे रे मना, धीरे सबकुछ होय.. . ....  :-))

आपकी कोशिश मुग्ध कर देती है.

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 7:52pm

अरून भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 7:51pm

आदरणीय निकोर साहब आपकी बात से सहमत हूं। नियमों का जादू मैं भी महसूस कर रहा हूं।
आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 7:49pm

वीनस भाई इता दोष की जानकारी मुझे नहीं थी इसलिए यह कमी रह ही गयी आखिर! आगे ऐसा कोई दोष मेरी रचना में न रहे ऐसा प्रयास करूंगा।
आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 7:47pm

आदरणीय सौरभ जी आपका आभार!
आदरणीय संदीप जी से यह ज्ञात हुआ कि यह बहर मान्य नहीं इसलिए आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार इसमें बदलाव किया।

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 7, 2013 at 7:40pm

आहा आदरणीय बृजेश भाई वाह आनंद आ गया क्या कहने बदलाव अगर ऐसा हो तो होना चाहिए, सभी के सभी अशआर लाजवाब हुए हैं ढेरों बधाई स्वीकारें. जय हो 

Comment by vijay nikore on June 6, 2013 at 10:23am

 

किसी एक शब्द के होने या न होने से लय में कितना फ़रक पड़ जाता है,

आपके प्रयास से यह ज़ाहिर है...जैसे कि निम्न में...."ही" और "इन" से।

 

मेरे पास आपकी गज़ल का पहला version नहीं है। यदि इ मेल में मुझको

उसे भेज सकें तो मैं प्रत्येक नए परिवर्तन को पुरानी पंक्ति के साथ देखना

चाहता हूँ।

 

सारी गज़ल ही इस तरह आपके प्रयास से और निखर आई है। बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

 

//छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही//

Comment by वीनस केसरी on June 6, 2013 at 1:09am

वाह भाई !!!
ग़ज़ल की काया पलट गई
रेनोवेशन हो गया
आत्मा नए शरीर में प्रवेश कर गई


भाव भूमि उर्वरा हो कर हरियाली से भर गई

इस शेर में बहुत खूबसूरत मंज़र पेश किया है ....

छेड़ दी ज्यों ही हवा ने पंखुड़ी गीली ज़रा

देर तक इन डालियों से ओस सी झरती रही

बाकी के शेर भी मस्त मस्त हैं

हाँ जानकारों के बीच यह मतला चर्चा का विषय हो सकता है जिसमें बड़ी इता का दोष स्पष्ट रूप से दिख रहा है ...
हाथी निकल गया तो पूँछ क्यों अटकी रहे ... है न !

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 5, 2013 at 11:34pm

आपने तो अपना वो अर्कान ही बदल लिया. अच्छा किया मिसरे शब्द ढोने में असमर्थ हो रहे थे. मतला फिर से देखिये.

वैसे गाँव वाला मिसरा अभी तक बदस्तूर है.

प्रयास बढिया हुआ हैऔर करें.

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