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तुमको जो प्रतिकूल लगे हैं
वे हमको अनुकूल लगे
और तुम्हें अनुकूल लगे जो
वे हमको प्रतिकूल लगे...............

हम यायावर,जान रहे हैं
फूल कहाँ पर काँटे हैं
तुमने संचय किया न जितना
हम तो उतना बाँटे हैं
तुम नत मस्तक जिसके आगे
हमको वे सब धूल लगे.............

तुम ठुकराते,हम अपनाते
फर्क यही हम दोनों में
कंकर पत्थर पर हम सोते
तुम मखमली बिछौनों में
भौतिक सुख हैं नाग विषैले
चन्दन हमें बबूल लगे..................

आये थे क्या लेकर,सोचो
क्या लेकर तुम जाओगे
जो कुछ नामे यहाँ करोगे
जमा वहाँ तुम पाओगे
जीवन की सारी सच्चाई
तुमको सदा फिजूल लगे..................

मेरा-मेरा कह कर तुमने
जग को किया पराया है
कौन हितैषी,कौन मित्र है
तुम्हें समझ ना आया है
तुमने मारे जितने पत्थर
हमको सारे फूल लगे ..............

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट,विजय नगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
(स्वरचित व अप्रकाशित)

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Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:48am

आदरणीय भाई विजय मिश्र जी, यथार्थ के धरातल पर आपकी प्रतिक्रिया शत्-प्रतिशत् सही है.कुछ सुधर ही नहीं पाते और कुछ सुधर भी जाते है.इस दुनियाँ में रावण और दुर्योधन हुये तो अंगुलीमार और बाल्मिकी भी हुये हैं. सुधार हेतु  प्रयास तो होने ही चाहिये. लाखों में एक भी सुधर जाये तो प्रयास सफल हो जायेगा. आपको हृदय से आभार. स्नेह बनाये रखें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:39am

आदरेया प्राची जी, आप जैसी विदूषी साहित्य-साधिका के अनुमोदन ने मेरे गीत को मानों पुरस्कृत ही कर दिया. हृदय से आभार.

**.नामे शायद टंकण त्रुटि है?** -

जैसे खाता-बही की दोहरी लेखा-प्रणाली में "नामे - जमा" की प्रविष्टियाँ की जाती हैं. एक प्रविष्टि जहाँ नामें [डेबिट] होती है वहीं किसी अन्य खाते में जमा [क्रेडिट] भी होती है.

हमारे कर्मों का भी खाता होता है. जो प्रविष्टि इस नश्वर संसार में डेबिट होती है, वह ऊपरवाले के पास रखी बही में जमा हो जाती है. किसी को कुछ देने के लिये निजी बैंक खाता डेबिट[आहरण] ही करना होता है .यहाँ का सुकर्म, दान ,सहयोग , सुख लुटाने का भाव वहाँ सुकर्मों के रूप में जमा हो जाता है. किसी से छीनने, किसी को लूटने ,किसी को दु:ख देने पर विपरीत प्रविष्टि होती है. इन्हीं भावों में "नामे" शब्द का प्रयोग हुआ है.

आपकी सलाह मेरे लिये अनमोल है. विश्वास है कि अब "नामे" वाली पंक्तियाँ निश्चय ही अच्छी लगेंगी. आपका स्नेह मेरी रचनाओं को सदा मिलता रहे.


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Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:15am

आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, बहुत-बहुत आभार.


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Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:14am

आदरणीय राजेश कुमार झा भाई , आपकी प्रतिक्रिया से नि:शब्द हो गया हूँ, क्या कहूँ ? अलंकारवादी युग में सादगी को पसंद करने वाले विरले ही हैं. आपका हर शब्द अंतरमन को गुदगुदा गया. बस मेरा लेखन सार्थक हो गया. गीत सफल हो गया. आपकी भावनाओंको मेरा हृदय से नमन.


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Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:06am

माननीय भाई लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी, आपके आशीर्वाद की छाँव में सदैव उर्जा प्राप्त करता रहा हूँ.आपकी अंतरंगता को हृदय से नमन.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 4, 2013 at 9:02am

आदरणीय बसंत नेमा जी, आपके अशीष ने हृदय में बसंत की ताजगी भर दी. आभार.....

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 4, 2013 at 7:39am

आदरणीय अरुण निगम साहब सादर, बहुत सुन्दर गीत प्रस्तुत किया है और संभवतः मैं आपका कोई गीत पहली ही बार पढ़ रहा हूँ बहुत ही सुन्दर प्रवाहमयी. 

तुमने संचय किया न जितना
हम तो उतना बाँटे हैं..................आपके बैंक से जुड़े होने का एहसास कराती पंक्तियाँ.बहुत खूब.

और 

आये थे क्या लेकर,सोचो
क्या लेकर तुम जाओगे
जो कुछ नामे यहाँ करोगे
जमा वहाँ तुम पाओगे......................इश्वर की कोर बैंकिंग का कांसेप्ट वाह! बढ़िया है.

सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by coontee mukerji on May 3, 2013 at 9:56pm

बहुत सुंदर प्रस्तुति , अरून जी . / सादर / कुंती .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 12:19pm

आदरणीय भई अरुन जी 

हमें तो आप  अनुकूल लगे 

बाक़ी जग प्रतिकूल लगे 

सादर बधाई 

Comment by कल्पना रामानी on May 3, 2013 at 9:15am

एक उत्कृष्ट और सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई अरुण जी...सादर

कृपया ध्यान दे...

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