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अरु नदिया पछताय ( कुछ दोहे )

नदिया का यह नीर भी, कुछ दिन का ही हाय |

उथला जल भी नहि बचा, जलप्राणी कित जाय ||

नदिया जल मल मूत्र सब, कैसा बढ़ा विकार |

मानव अवलम्बित धरा, सहती अत्याचार ||

क्षुधा तृप्त करता सदा, नद जल सुधा समान |

व्यर्थ खरचता रातदिन, यह पापी इंसान ||

 

सरि तल बालू देखती, अब सीधे आकाश |

चकाचौंध ने कर दिया, सरिता का ही नाश ||

धार बहे अब अश्क सी, नदिया रुदन छुपाय |

विकसित नद से सभ्यता, अरु नदिया पछताय ||

नदिया पर भी चढ़ गए, लोगों के निज धाम |

खुद ही दावत मौत को, भल करे सियाराम ||

प्रदुषित जल विस्तार से, फैले कितने रोग |

सरकारें मदमस्त हैं, भोगें निर्धन लोग ||

पवित्र नदियों में सभी, बहता प्रदुषित नीर |

सरकारें खामोश हैं, जन-जन उठती पीर ||

जन-जन ही अब ध्यान दे, तब ही पाए नीर |

भागीरथी प्रयास हों, आए मन तब  धीर ||

 

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Comment by राजेश 'मृदु' on April 30, 2013 at 2:11pm

आदरणीय रक्‍ताले साहब, बहुत ही पसंद आए आपके दोहे, सीधा संदेश कि पर्यावरण को बचाना है नहीं तो हम भी नहीं रहेंगें जो बिल्‍कुल सार्थक है खासकर ये दोहा तो सबसे बेहतरीन लगा, सादर

सरि तल बालू देखती, अब सीधे आकाश |

चकाचौंध ने कर दिया, सरिता का ही नाश ||

Comment by Shyam Narain Verma on April 30, 2013 at 12:20pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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