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कैसा समाज // कुशवाहा//

कैसा समाज // कुशवाहा//

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जनम लेत बालिका जननी न सुहात है 

माम सुन चाहत है मात नही भात है 

कृष् काय बदन लिये तन पर नहि गात है 

चौराहे अन्न सडत कैसा सुप्रभात है 

वैभव विहीन वो जनम काली रात है 

कली न खिली अभी भंवरे मडरात हैं  

खग गगन उड़न चहे बाजों का राज है 

सखि संग खेलन गयी संझा की बात है 

मैला आंचल हुआ लुटी सगरी रात है 

दोषी भला ये क्यों अपने ही भ्रात हैं 

संस्कार विहीन ये अपराध सम्राट हैं 

दिया नहि ध्यान कभी कहाँ कहाँ जात हैं 

अपराधी बने वे करत पश्चाताप हैं 

घर में बैठ कभी करत नही बात हैं 

पैसा पैसा करत मरते दिन रात हैं 

शूल बन पथ में आज कंटक चुभत जात हैं 

संस्कृति सभ्यता ज्ञान से नहि  कुछ नात है 

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

२४-४-२०१३ 

मौलिक /अप्रकाशित 

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Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 25, 2013 at 4:01pm

श्रद्धेय कुशवाहाजी,

टीस को बड़े कसे हुए शब्द दे कर झकझोर दिया है, नमन स्वीकार करें. दांत के दर्द से तो छुटकारा सम्भव है, इस टीस का तो कोई निराकरण ही दीखता नहीं. अदृष्ट का भय तो दृष्ट और धृष्ट रूप ले चूका है....समाज की निर्वसनता की इस टीस को शब्दों का परिधान देने  के लिए धन्यवाद..

Comment by ram shiromani pathak on April 25, 2013 at 12:25pm

आदरणीय उच्च कोटि का  कथ्य और सटीक व्यंग  ///// हार्दिक बधाई आपको 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 25, 2013 at 10:05am

आ0 कुशवाहा जी, सर जी, अतितीक्ष्ण कटाक्ष। बहुत बहुत बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 24, 2013 at 11:28pm
आदरणीय कुशवाहा जी .बिभिन्न रंगों को दर्दों को झंझावात को समेटे सामयिक रचना ...काश लोग संस्कार को समझ सकें बाज कुत्ते और गिद्ध न बनें 
 
.जय श्री राधे 

भ्रमर ५ 

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