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वो नन्हा नेत्रहीन

रामनवमी के सुअवसर पर मुझे आगरा -मथुरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर यमुना किनारे स्थित सूरकुटी के नेत्रहीन विद्यालय के नेत्रहीनों के साथ कुछ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।यह क्षेत्र सूर-सरोवर (कीठम-झील) के समीप हैऔर महाकवि सूरदास की कर्मस्थली गऊघाट पर अवस्थित है।यहीं सूर-श्याम मंदिर भी है,जहाँ सूरदास जी श्यामसुंदर की भक्ति में डूबे रहते थे।इसके समीप ही पाँच सौ वर्ष प्राचीन वह कुआँ भी है,जिसके विषय में यह किवदंती प्रचलित है कि एक बार जन्मांध सूरदास जी इस कूप में गिर गए थे,तब भगवान श्रीकृष्ण ने कुएँ के समीप स्थित वृक्ष से उतरकर स्वयं उन्हें कुएँ से बाहर निकाला था।सूर-श्याम मंदिर के समीप ही नेत्रहीन विद्यालय परिसर में आगरा-मथुरा एवं आस-पास के अनेक नेत्रहीन निवास करते हैं। वे सभी यहाँ रहकर शिक्षा ग्रहण करते हैं और अपना जीवन-यापन करते हैं।आगरा के वन्य क्षेत्र में स्थित यह विद्यालय नगर की सीमा से बाहर एवं जीवन की विभिन्न सुविधायों से रहित है,किन्तु प्रकृति के सुरम्य वातावरण एवं यमुना के मनमोहक तट पर स्थित होने के कारण यहाँ के निवासियों को बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त हैं।वानरों का आतंक यहाँ के लोगों का जीवन कठिन बनाता है,फिर भी वे सब यहाँ प्रसन्न हैं।यहाँ पर सभी दोनों नेत्रों से अंध है,पर कुछ ऐसे भी हैं,जिनकी एक आँख ठीक है।यहाँ तक कि विद्यालय के प्रधानाचार्य भी पूर्णरूपेण अंधे हैं।इनकी सहायतार्थ कुछ नेत्रवान लोग भी यहाँ रहते हैं।वैसे तो विद्यालय में अनेक सदस्य ऐसे थे ,जिनकी दयनीय स्थिति मन को द्रवित कर रही थी,किन्तु उन सबसे भिन्न एक छोटा बालक था,जिसे अपने बिस्तर पर शांत भाव से लेटे देखकर मैं अनायास ही स्वयं को उससे बातें करने से न रोक सकी। वह इस विद्यालय का सबसे नन्हा सदस्य है।आयु लगभग सात -आठ वर्ष है।मेरे पूछने पर उसने अपना नाम बताया-लक्ष्मण।"कहाँ से आये हो ?" जब मैंने यह पूछा तो उसने कहा-"मथुरा से।"मैंने प्रश्न किया " घर में और कौन-कौन है ?" उसका उत्तर था-"पापा हैं,दादी हैं,ताऊ -ताई हैं,उनके बच्चे हैं।"माँ और भाई-बहन कहाँ हैं?जब मैंने यह पूछा तो उसने बताया कि एक सड़क - दुर्घटना में माँ की मृत्यु हो गयी,एक बहन है,वो बहुत छोटी है,जो नानी के घर पर रहती है।पापा क्या करते हैं?इस प्रश्न के उत्तर में उसने कहा - वो शराब पीते हैं।उसका उत्तर सुनकर मैं सन्न रह गयी। पिता की शराब ने ही संभवतः उस नन्हें अंध बालक को परिवार से दूर कर दिया है। तुम्हें यहाँ कौन लाया था?मेरे ताऊ जी मुझे यहाँ छोड़कर गए थे।उसकी करूण - कथा मेरे अंतर्मन को झकझोर गयी। उसके परिजनों की हृदयहीनता मेरी संवेदना को कचोट गयी। उसका वह सुन्दर प्यारा मुखमंडल बरबस ही किसी को आकर्षित करने में समर्थ था।इतने सुन्दर और दयनीय स्थिति के इस बालक को कैसे इसके परिजनों ने त्याग दिया।जब इसे अपनों के सहारे की इतनी आवश्यकता है,तब कैसे उन लोगों ने इसे अस्सहाय छोड़ दिया,यही सब सोचते-सोचते मेरा मन द्रवित हो उठा और मेरी आत्मा मानो मुझसे कहने लगी कि इस बच्चे को अपने घर ले चल।यदि आज इस बालक की माँ जीवित होती तो क्या वह अपने पुत्र को इस प्रकार इस नेत्रहीन विद्यालय में अकेला रहने को भेज देती। कैसा है वह पिता जो अपनी संतान की स्वयं देख-भाल न कर सका?कैसे हैं,वे लोग जो अपने बच्चे को इस प्रकार अस्सहाय छोड़कर,स्वयं से दूर कर जीवन जी लेते हैं?एक वो लोग भी होते हैं,जिनके संतान नहीं होती,तो वो एक बच्चे के लिए तरसते हैं,और दूसरे ये लोग हैं,जिन्हें ईश्वर ने संतान का अनुपम वरदान दिया है तो ये उस वरदान को सहेज नहीं पा रहे हैं।वो नन्हा लक्ष्मण अपनी दयनीय अवस्था में भी पूर्ण निर्विकार भाव से मुझे छात्रावास के उस कक्ष में बैठा हुआ इस संसार से अनभिज्ञ, स्वयं में रमा हुआ शांतचित्त रूप में आज भी दिखाई देता है।
'सावित्री राठौर'
[सत्यकथा - मौलिक एवं अप्रकाशित]

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Comment by Savitri Rathore on April 23, 2013 at 7:43pm

आदरणीय बृजेश जी,सादर नमस्कार!
मेरी रचना को समय एवं सराहना देने हेतु धन्यवाद।आपका सुझाव सही है,मैं स्वयं ही शीघ्रता के फेर में अनुच्छेद-परिवर्तन करना भूल गयी,आपने इस कमी को रेखांकित कर मेरा मार्गदर्शन किया।भविष्य में मैं ऐसी चूक के प्रति सावधान रहूँगी।आभार !

Comment by बृजेश नीरज on April 23, 2013 at 5:31pm

आदरणीया सावित्री जी आपका संस्मरण बहुत ही मार्मिक है। इस प्रयास के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।
एक सुझाव देना चाहता हूं कि यदि आपने इस संस्मरण को छोटे छोट पैराग्राफ में बांटकर लिखा होता तो ज्यादा आकर्षक लगता तथा पाठक को भी पढ़ने में आसानी होती।
सादर!

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