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तुम कैसे श्रेष्ठ ? // गणेश जी "बागी"

हे पूज्य !

आप ग़लत थे,
मैं सही था |

आप के कहे को
मान दिया था,
अनुचित आदेश को
मान लिया था |
आप पर विश्वास था,
मिला था आशीर्वाद-
एक अफलित आशीर्वाद |

हे पूज्य!
आप ग़लत थे,
मैं सही था |

आपने तोड़ा था विश्वास,
किंचित, मुझे नही मानना था
संकुचित आदेश,
मुझे नही देना था-
अंगूठा,
दिखला देना था-
अंगूठा,


क्या होता ?
नालायक कहलाता !
अल्प काल के लिए,
किंतु नही घुलता
तिल-तिल, प्रति-दिन,

हे पूज्य!
आज भी लगता है,
आप ग़लत थे,
किंतु,
मैं भी ग़लत था,

आपको सुनता रहा ।
पिछला पोस्ट => अंतर्द्वंद्व

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 16, 2013 at 10:04pm

सही को गलत मान लेना और ह्रदय के ना चाहते हुए भी बड़ों की गलत बात स्वीकार लेना आज का हर युवा नकार देगा क्यों की गलत बात में किसी का साथ देना भी गलत है श्रद्धा,आदर आज भी है किन्तु आज का युवा एकलव्य नहीं बन सकता जो एकलव्य       ने किया उसे हम एक अंधी श्रद्धा ही कहेंगे। किन्तु उस जमाने में इन सब बातों से ही किसी के चरित्र का मापदंड होता था वक़्त वक़्त की बात है आदरणीय गणेश बागी जी बहुत अच्छी एक अलग विषय पर लिखी हुई लीक से हट कर प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी हार्दिक बधाई आपको |

Comment by Vindu Babu on April 16, 2013 at 9:49pm
आदरणीय बागी जी एकलव्य की वेदना को अभिव्यक्त करती हुई सुन्दर रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें।
मुझे नहीं देना था-
अंगूठा
दिखला देना था-
अंगूठा
प्रभावी शिल्प!
सादर
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 16, 2013 at 9:05pm

जय हो सर जी एकलव्य के नव सोच और अंतर्द्वंद को खूबसूरती के साथ समेटा है आपने इस अभिव्यक्ति में ..........सादर बधाई हो

कृपया ध्यान दे...

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