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ग़ज़ल : इश्क जब इम्तेहान लेता है

मिसरों का वज़्न : २१२२ १२१२ २२ (११२२ १२१२ २२ की छूट ली जा सकती है)

---------------------------------------- 

अच्छे अच्छों की जान लेता है

इश्क जब इम्तेहान लेता है

 

बात सबकी जो मान लेता है

छोड़ सबकुछ मसान लेता है

 

वही जीता है इस नगर में जो

बेचकर घर दुकान लेता है

 

फन वो देता है जिसको भी सच्चा

पहले उसका गुमान लेता है

 

ये निशानी है खोखलेपन की

खुद को खुद ही बखान लेता है

 

जब भी लगता है रोग पैसों का

सबसे पहले थकान लेता है

---------------------------------------

(स्वरचित एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 12, 2013 at 1:56pm

आए हाए सर जी वाह वाह वाह
क्या ही सुंदर ग़ज़ल कही है छोटी बहर में
लाजवाब
बहुत बहुत दाद कुबूलें
जय हो

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 12, 2013 at 1:40pm
आदरणीय धर्मेंद्र सर जी! बहुत ही अच्छी गजल है, बधाई।इन पंक्ति के खास तौर से-
ये निशानी है खोखलेपन की
खुद को खुद ही बखान लेता है
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 12, 2013 at 11:51am

आ0 धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, बहुत ही सुन्दर गजल। गजल मुझे अच्छी लगती है किन्तु अभी सीख रहा हूं। ‘‘बात सबकी जो मान लेता है
छोड़ सबकुछ मसान लेता है‘‘ जी सर , मैं भी ’शिव शंभू को ही समझ रहा हूं। जिन्होने विश्व का ऐश तज कर शमसान की शरण मे रहे’ अगर कुछ और अर्थ है तो- आ0 धर्मेन्द्र जी स्पष्ट करना चाहें। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 12, 2013 at 8:51am

//अच्छे अच्छों की जान लेता है

इश्क जब इम्तेहान लेता है//

वाह वाह, बहुत ही खुबसूरत मतला, 

 

//बात सबकी जो मान लेता है

छोड़ सबकुछ मसान लेता है//

बहुत प्रयास किया पर इस शेर को मैं नहीं समझ सका । मैं मसान को समसान समझ सोच रहा हूँ ।

 

//वही जीता है इस नगर में जो

बेचकर घर दुकान लेता है//

क्या बात है, बहुत ही उम्दा ख्याल है, दुकान कायम रहे बस, मकान कई बन जायेंगे, अच्छा शेर । 

 

//फन वो देता है जिसको भी सच्चा

पहले उसका गुमान लेता है//

एकदम से यह शेर हिट कर रहा है, फ़नकार में यदि गुमान शेष है तो फिर फ़नकार कैसा ! बढ़िया शेर । 

 

//ठीक ये निशानी है खोखलेपन की

खुद को खुद ही बखान लेता है//

यह भी शेर बढ़िया है, पोल को ढ़कने के लिए ढोल को आवरण में कैद होना पड़ता है । 

 

//जब भी लगता है रोग पैसों का

सबसे पहले थकान लेता है//

दो जून की रोटी के लिए पैसा कमाना भी कईयों को थका देता है ।

इस खुबसूरत ग़ज़ल पर ढेरों दाद कुबूल हो ।

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