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फाग का महीना. ( मनहरण घनाक्षरी पर एक प्रयास)

ढाक अमलतास पे, आ गयी बहार देखो,

सेमर भी कुसुमित, फाग का महीना है |

 

सारे रंग लाल-लाल, फूलों पर दिखाई दें,

कुहु-कुहू कोयल की, राग का महीना है |

 

सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,

तपन दहन वह्नि, आग का महीना है |

 

सैर सपाटा सुबह, मन में उल्लास भरे,

नदियाँ तलाव नीर, बाग़ का महीना है ||

 

 

मौलिक / अप्रकाशित.

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Comment by Ashok Kumar Raktale on April 4, 2013 at 8:50pm

भाई अरुण जी सादर आभार. सुधार के लिए तो प्रयत्नशील रहना ही होगा.

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 4, 2013 at 8:49pm

आदरणीय एस. के. चौधरी साहब सादर, मैं अवश्य ही  आगे यह प्रयास रखूंगा की इस तरह की घाल मेल ना हो. सादर आभार.

Comment by seema agrawal on April 4, 2013 at 7:14pm

बहुत सुन्दर मन मोहित  करने वाले शब्द और भाव रचे हैं अशोक जी ........बहुत प्यारी घनाक्षरी ...संदीप की बातों से मैं भी सहमत हूँ क्योकि पढ़ते समय मुझे भी बस इन्ही स्थानों पर लय रुकती हुयी सी लगी .......

//ढाक अमलतास पे//, //बदन झुलसायेगा//,और// तपन दहन वह्नि// मे कुछ प्रवाह बाधित सा लग रहा है

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 4, 2013 at 5:30pm

आदरणीय अशोक सर बहुत ही सुन्दर घनाक्षरी प्रस्तुत की है आपने, मुझे बहुत पसंद आये हार्दिक बधाई स्वीकारें.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 4, 2013 at 4:09pm

सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीय..

सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,/ तपन दहन वह्नि,.. इन तीन चरणों में शब्द-संयोजन सधा हुआ नहीं है, आदरणीय.

सम के बाद सम और विषम के बाद विषम शब्द रखने से इसे साधा जा सकता है.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 4, 2013 at 3:36pm

आदरणीय अशोक सर जी बहुत ही सुंदर घनाक्षरी रची है आपने बहुत बहुत बधाई हो

//ढाक अमलतास पे//, //बदन झुलसायेगा//,और// तपन दहन वह्नि// मे कुछ प्रवाह बाधित सा लग रहा है

हो सकता है मैं जिस लय मैं गा रहा हूँ उसकी वजह से हो आप देख लीजिए

एक बार पुनः बधाई आपको

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