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बहते हुए समय के साथ

कदम मिलाकर चल सको

तो अच्छा है,

उसे रोकने की कोशिश मत करो –

तुम्हें धराशायी करके

वह निर्लिप्त, आगे ही बढता जायेगा.

 

उस धारा में उठती लहरों को

‘गर चूम सको

तो अच्छा है,

उन्हें बाँधने की कोशिश मत करो –

निर्दयी वे, तुम्हें अकेला छोड़

भँवरों में समा जायेंगी.

 

और, उन तपस्वी वृक्षों तक

यदि पहुँच सको

तो अच्छा है,

उनसे ऊँचा बनने की कोशिश मत करो –

माटी में ही जीवन है, यह समझाने

माटी में वे तुमको उतार लायेंगे.

 

हाँ, यदि तुममें

आवारा बादल बनने की क्षमता है

तो बात अलग है,

चाहे गरजो,वा बरसो, मदमस्त फिरो

कोई तुम्हें रोक नहीं सकता –

पर सावधान !

उस नीले गहरे महाशून्य से घबराना

कहीं सृष्टि के मौन गर्भ में खींच न ले.  

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on March 9, 2013 at 7:53pm

आदरणीय, इस सुन्दर रचना के लिए बधाई।" बहुत गहन भाव लेकर चली है आपकी चिंतन धारा |

Comment by विजय मिश्र on March 9, 2013 at 10:36am
" और, उन तपस्वी वृक्षों तक
यदि पहुँच सको
तो अच्छा है,........ . " बहुत गहन भाव लेकर चली है आपकी चिंतन धारा | साधुवाद शारदिन्दूजी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 9, 2013 at 2:11am

समय, लहर, वृक्ष के प्रतीकों से निरंकुश मठों के बहुजाल की ओर इंगित करना इस रचना के संदर्भ में आपकी सम्प्रेषणीयता को अभिनव आयाम देता है. मार्गदर्शी तक से भयाक्रांत मनस प्रतिदिन मरते समाज में जीने को विवश है.  

रचना के माध्यम से सही कहा गया है, मोहपाश, भ्रमजाल पग-पग पर हैं. ऐसे में विवेक और प्रखर चैतन्य का ही भरोसा है.

एक वैचारिक रचना को साझा करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.. .
शुभ-शुभ

Comment by राजेश 'मृदु' on March 8, 2013 at 1:10pm

बहुत ही उम्‍दा लेखन, 'उस धारा' बहुअर्थी  है, इसे कृपया स्‍पष्‍ट करें और निर्दयी वे - निर्दयी क्‍यों कहा गया, कुछ गूढ़ार्थ तो है जिसे समझकर भी समझ नहीं पा रहा हूं, मार्गदर्श करें तो और आनंद आए, सादर

Comment by vijay nikore on March 8, 2013 at 12:13pm

आदरणीय, इस सुन्दर रचना के लिए बधाई।

विजय निकोर

 

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