=========ग़ज़ल =========
झूठ कहता बाप से माँ से हुआ अनजान है
भूल क्यूँ जाता है बेटा वो उन्ही की जान है
है दगा रग रग में जिसकी झूठ जिसकी शान है
दूर से पहचान लें वो इक सियासतदान है
मौन हर मौसम में वो रहता है गम हो या ख़ुशी
इस हुनर को देख शायर हो गया हैरान है
खूब भर लो धन घरों में याद रखना तुम मगर
आखिरी मंजिल सभी की है तो कब्रिस्तान है
हर तरफ ही लूट हत्या रेप ऐसे हो रहे
देख कर लगता नहीं ये मुल्क हिन्दुस्तान है
मार खा खा के न सुधरा आदमी इस मुल्क का
"दीप" शक होने लगा, क्या ये भी इक इंसान है ??
संदीप पटेल ”दीप”
Comment
आदरणीय डॉ साहब सादर प्रणाम
आपकी सरहना पाकर सुखद अनुभूति हो रही है
कोशिश कर रहा हूँ की कुछ कमियों को डोर किया जा सके
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
आपका हृदय से धन्यवाद इस प्रतिक्रिया की टॉनिक के लिए सादर आभार
संदीप जी अच्छी रचना हुई है लेकिन आपके रंग और छाप की कमी महसूस हो रही है दिख रहा है...दिल से दुवा और दाद कुबूल हो!
आदरणीय प्रदीप सर जी सादर प्रणाम
रचना कर्म को सरहने हेतु आपका बहुत बहुत आभारी हूँ
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए अनुज पर
खूब भर लो धन घरों में याद रखना तुम मगर
आखिरी मंजिल सभी की है तो कब्रिस्तान है
फिर भी ये हाल ..
बधाई आदरणीय संदीप जी
सादर
आदरणीय वीनस सर जी , आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी , आदरणीया वेदिका जी , आदरणीया सावित्री जी , सादर प्रणाम
आपको ग़ज़ल में थोडा बहुत कुछ अच्छा लगा जी को सुकून मिला
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
शायद गुरुदेव आपने सच कहा है ये आग्रह मन में आता ही है लाख चाहने के बाद भी ...........अब के कोशिश करूँगा के और अच्छा लिखूं
संदीप जी मैं इस ग़ज़ल पर जो कहना चाहता था उसे कहने से पहले प्रतिक्रिया पढ़ने लगा और देखा कि सौरभ जी पहली ही मेरी बात कह चुके हैं ...
इसलिए अब उनके स्वर से मेरा स्वर मिला हुआ मानें ...
और स्पष्ट हो जाऊं,,, तो मुझे आपकी पिछली ग़ज़ल पर अपनी वो टिप्पणी याद आती हैं जिसमें मैंने आपसे निवेदन किया था कि
// कम लिखें मगर ऐसा ही लिखें ....//
खैर सब कुछ तो अच्छा ही नहीं हो सकता, बस आकलन करें और चुनिन्दा को ही साझा करें तो जियादा बढ़िया रहे ...
शुभकामनाएं
बहुत सही लिखा .....
खूब भर लो धन घरों में याद रखना तुम मगर
आखिरी मंजिल सभी की है तो कब्रिस्तान है
खूबसूरत तीर ....
आदरणीय संदीप पाटिल 'दीप' जी
सादर वेदिका
//किन्तु मुझे लगता है की कुछ गलती हुई है ............मैं समझ नहीं पा रहा हूँ //
ऐसा तो कुछ न था, संदीपभाई. लेकिन..
वैसे कहा है आपने तो इसी बहाने एक तथ्य को साझा करता चलूँ.
शरद जोशी अक्सर कहा करते थे कि मैं घटिया लेखक हूँ क्योंकि मैं प्रतिदिन लिखता हूँ. इस पंक्ति के शब्दार्थ नहीं, इसके निहितार्थ और इसकी भावदशा को समझियेगा, भाईजी, नहीं तो, अन्यथा अनावश्यक भटकने या मन में अन्यार्थ के व्याप जाने का खतरा है.
लिखने के क्रम में सतत अभ्यास अत्यावश्यक है लेकिन वाहवाही के तुमुल नाद का आग्रह या इसकी अपेक्षा किसी उर्ध्वमुखी अभ्यासी को भटकाव की ओर उकसाती है. भटकन को प्राप्त कई-कई सदस्यों की तरह आपकी यही सीमा नहीं है. अब हम तो यही समझते हैं..
शुभेच्छाएँ.. .
मार खा खा के न सुधरा आदमी इस मुल्क का
"दीप" शक होने लगा, क्या ये भी इक इंसान है ??
अतिसुन्दर एवं सत्य दीप जी।इस सुन्दर रचना हेतु आपको बधाई हो।
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