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हंत! व्यथित है चित्रकारी (क्षणिका)

तुम्हारी झुकी पलकें जो देखी
तो शृंगार रस में डुबोकर तूलिका,
मन में कोई छवि बना ली
कि यकायक तुमने पलकें उठा ली ,
भाव बदला, रस बदला
आंखों में सुर्ख डोरों को देख
तूलिका का रंग बदला
सब समझ गया मैं रुप का पुजारी
जिसके अंग-अंग पर तूलिका चलती थी
तू नहीं रही अब वो नारी
नही बचा तुझमें स्पंदन
हंत ! व्यथित है चित्रकारी
**********************

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2013 at 7:56pm

प्रिय संदीप आप को रचना के मर्म ने छुआ ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को नव ऊर्जा प्राप्त हुई  दिल से आभार 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 7:39pm

क्या बात है क्या ही कलाकारी है

जो भाव भंगिमा उकेरी है शब्दों से गहरी है

कल और आज की तस्वीर यही है

जिसे समझना है समझे नहीं तो चित्रकारी तो हो चुकी है

बधाई हो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2013 at 7:12pm

राजेश कुमार झा जी आपको रचना के मर्म ने छुआ दिल से आभारी हूँ 

Comment by राजेश 'मृदु' on February 5, 2013 at 6:46pm

उफ !!!!!! इतने सघन भाव, बहुत बधाई आपको इस बेहतरीन प्रस्‍तुति पर, सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 4, 2013 at 8:44pm

हार्दिक आभार आदरणीय गणेश जी मेरी रचना के भावों को आत्मासात कर अपने अनुमोदन से मेरे लेखन को सार्थकता प्रदान की दिल से आभारी हूँ  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2013 at 8:26pm

//यदि वही चित्रकार उस बदले हुए रुप के मूल तक जाए उसमें वही विश्वास वही आकर्षण वही प्रेम फिर से अंकुरित करे तो निःसंदेह उसको वही भाव वही स्वरूप  नजर आयेंगे उसके  प्रतिमान में ,//

यही किसी रचनाकार की शब्द साधना है, आदरणीया. यही साधना किसी भावुक को संप्रेषणीय करते हैं.  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 4, 2013 at 8:14pm

शब्द, शब्दों का क्रम, शब्दों में निहित भाव, भावों से निर्मित एक खुबसूरत कृति, वाह वाह, बहुत खूब, शानदार अभिव्यक्ति आदरणीया, बधाई स्वीकार करें |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 4, 2013 at 7:37pm

हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी मेरे शब्द भावों में मूल तक प्रवेश करने के लिए और मर्म तक पँहुचने के लिए| सही कहा चित्रकार जिस खूबसूरती पर अपनी तूलिका चलाना चाहता है उसको उसका रुप बदलना खल जाता है वो आहत होता है जैसे किकभी कभी किसी लेखक के शब्द रूठ जाते हैं जिस तरह चाहता है वो अपने भाव ढाल नही पाता तो छटपटाहट होती है,पर क्यूँ?? यदि वही चित्रकार उस बदले हुए रुप के मूल तक जाए उसमें वही विश्वास वही आकर्षण वही प्रेम फिर से अंकुरित करे तो निःसंदेह उसको वही भाव वही स्वरूप  नजर आयेंगे उसके  प्रतिमान में ,बस यही कहने कि चेष्टा की  है|      


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2013 at 6:51pm

वाह !

शृंगार चाहना के आगे दम भरती है. कि, वही आँखों के डोरे सुर्ख़ भी रखती है. चाहना चाहे जो हो, पेट की या देह की !

अपने वायव्य में चाहना चाहे जो रच ले.. किन्तु, बिम्ब का स्वयं बोल उठना बर्दाश्त नहीं होता. चितेरे की संवेदना आहत होती है. ..

बहुत सुन्दर किन्तु अवगुंठितभावों को आपने स्वर दिया है.  सादर बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 4, 2013 at 5:30pm

हार्दिक आभार प्रिय प्राची जी ,हंत व्यथित चित्रकारी अविश्वास व असुरक्षा इतनी वयाप्त हो गई आज एक नारी के मन में कि वो अब एक चित्रकार कि भावना को भी शक़ के दायरे में रख कर देखती है स्पंदन हीन हो चुकी हैं सब उसकी सम्वेद्नाये ,यह देख् कर एक कला एक कलाकार कितने  व्यथित है बस यही मर्म है इन्हीं   उद्द्गारो को साझा किया है इस  क्षणिका में पुनः आभारी हूँ कि मर्म ने आपको छुआ 

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