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भोर के पंछी

तुम ...
रहस्यमय भोर के निर्दोष पंछी
तुमसे उदित होता था मेरा आकाश,
सपने तुम्हारे चले आते थे निसंकोच,
खोल देते थे पल में मेरे मन के कपाट
और मैं ...
मैं तुम्हें सोचते-सोचते, बच्चों-सी,
नींदों में मुस्करा देती थी,
तुम्हें पा लेती थी।

पर सुनो!
सुन सकते हो क्या ... ?
मैं अब
तुम्हें पा नहीं सकती थी,
एक ही रास्ता बचा था केवल,
मैं .. मैं तुमसे दूर जा सकती थी,
दू...र, बहुत दूर चली गई।

पर दूर जाती छूटती दिशाओं को पकड़ न सकी
अपनी कुचले-इरादों-भरी ज़िन्दगी से उन्हें मैं
हटा न सकी, मिटा भी न सकी,
हाँ, मिटाने के असफ़ल प्रयास में हर दम
मैं स्वयं कुछ और मिटती चली गई ....

जो कभी देखोगे मुझको तो पहचानोगे भी नहीं,
मैं वह न रही कि जिसको तुम जानते थे कहीं,
प्यार से पुकारते थे तुम,
या, शायद पुकारते हो प्यार से अभी भी
अपनी दीवानगी में ... कभी-कभी।

प्रवाहित हवाओं को मैं रोक न सकी,
गति को उनकी मैं थाम न सकी
गंतव्य को जान न सकी।
यह हवाएँ जो ले आती हैं तुम्हारी पुकार
हर भोर मेरे पास, इतनी पास,
यह मुझको बींध-बींध जाती हैं ...
मेरे भोर के सुनहले पंछी
तुम तो वही रहे
मैं वही रह न सकी।
--------

विजय निकोर

vijay2@comcast.net

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Comment by SUMAN MISHRA on January 3, 2013 at 1:37pm

एक पुकार ,,,,,निरीह और पारदर्शी सी मन के आर पार,,,,

Comment by vijay nikore on January 3, 2013 at 2:24am

आदरणीया सीमा जी,

कविता की सराहना के माध्यम उत्साहवर्धन हेतु आभारी हूँ।

नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ,

विजय निकोर

Comment by seema agrawal on January 2, 2013 at 9:06pm

आदरणीय विजय जी रचना के माध्यम से पूरे अतीत  को वर्तमान  के समक्ष खडा कर दिया है आपने 

एक करुण गुहार जो अब शायद और भी दूर चली गयी है .......

Comment by vijay nikore on January 2, 2013 at 8:06pm

Like के लिए धन्यवाद लक्ष्मण प्रसाद जी।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 2, 2013 at 8:04pm

आदरणीय राजेश कुमार जी,

आपकी सराहना मेरा संबल है। अतिशय धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on January 2, 2013 at 8:02pm

आदरणीय सौरभ भाई,

इतनी उदार प्रतिक्रिया के लिए मेरा हार्दिक आभार।

विजय निकोर

Comment by राजेश 'मृदु' on January 2, 2013 at 4:26pm

एक चलचित्र की भांति एक-एक दृश्‍य मानस पटल पर उभारती एक कसी हुई रचना, सादर आभार इसे शेयर करने के लिए


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 2, 2013 at 3:29pm

आदरणीय विजय जी, आपकी रचना प्रभावित कर गयी.

अनुभूति के विस्तार को प्रकृति चाहे जो आयाम  --और आवरण भी--  दे, इसी प्रकृति का अनन्य अंग मनुष्य समुदाय इसे अपने हिसाब से अर्थ देता है. इस अर्थ आरोपण में कई-कई स्वप्नजीवियों को जो कुछ भोगना होता है वो सटीक ढंग से इंगित हुआ है.

इस रचना हेतु हार्दिक बधाई.

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