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शाम हो रही थी साहब घर जाने के लिए निकले और जाते जाते रामदीन को मेरी जिम्मेदारी सौंप गये. रामदीन को भी घर जाना था इसलिए उसने जल्दी से मुझे नीचे उतरा और झाड़ा झटका, अचानक मुझ पर पडी गर्द रामदीन से जा चिपकी, वह झुझला गया जैसे उसके शरीर पर धूल न चिपक गई हो बल्कि उसकी आत्मा से ईमानदारी जा चिपकी हो. उसने तुरंत अपने गमछे से सारे शरीर को झाड़ा और एक बार आईने में भी देख आया, उसे लग रहा था जैसे इमानदारी अब भी उससे चिपकी रह गई है. उसने मुझे तह किया और अलमारी में रख दिया. 
***
रामदीन ने बहुत दिन के बाद मुझे अलमारी से निकला, मैंने देखा कैलेण्डर के कई पन्ने पलते जा चुके हैं. अगस्त ! तो क्या पन्द्रह अगस्त आ गया ? उसने मुझे फिर से झाडा झटका, गर्द तो एक बार फिर से उस पर चिपका चाहती थी मगर गरीब रामदीन इस बार सावधान था, उसे पता था कि वो यह बोझ नहीं उठा सकता.

साहब आ चुके हैं, दस बजे ध्वजारोहण होगा. 

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Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 14, 2012 at 6:08pm

वीनस जी,

थोड़ी सी टाइपिंग की अशुद्धी है, उसे सही कर दें | 

१. "रामदीन ने बहुत दिन के बाद मुझे अलमारी से निकला", यहाँ निकला की जगह निकाला कर दें

२. "मैंने देखा कैलेण्डर के कई पन्ने पलते जा चुके हैं" यहाँ पलते की जगह पलटे होना चाहिए|

३. "गर्द तो एक बार फिर से उस पर चिपका चाहती" यहाँ चिपका की जगह चिपकना है शायद |

इस तरह की अशुद्धी मुझसे भी कई बार होती है, लेकिन भला हो ओबीओ का कि यहाँ निराकरण का ऑप्शन मौजूद है|

Comment by Dipak Mashal on December 13, 2012 at 10:53pm

''झूठा है इस लघुकथा का लेखक, जो यह कहता है की यह उसकी पहली लघुकथा है।''(एक मजाक) :) कथ्य और शिल्प दोनों ही इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वह उतावले बैठे थे कि कब वीनस अपनी पहली लघुकथा लिखे और हम तपे सोने की तरह ओ बी ओ पर जड़ जाएँ।

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 2:07pm

चन्द्रेश जी शुक्रिया

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 2:07pm

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR

धन्यवाद आदरणीय

Comment by वीनस केसरी on November 26, 2012 at 2:06pm

डॉ. बाली साहिब सही कहा आपने आजकल इस गर्द को लोग बहुत हिकारत की नज़र से देखते हैं 

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:28pm

बहुत उम्दा (लघु) कथा है | सच्चाई और ईमानदारी वास्तव में गर्द खा रही है|

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on November 22, 2012 at 11:49pm
वीनस भाई एक अलग तरह की शैली की कथा ..व्यंग्य का पुट  लिए हुए ...सच में हाल यही है ईमानदारी सम्हालना साँसों के सम्हालने से बढ़ के है 
माह के सक्रीय सदस्य चुने जाने पर आप को और आप के श्रम को सलाम 
सस्नेह 
भ्रमर 5 
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on November 20, 2012 at 10:46am

वीनस भाई आजकल ईमानदारी को लोग ऐसे झाड पोंछ कर आलमारी में रखते हैं...साथ लेकर चलाने में दर है कहीं कोई चुरा न ले......हाहाहाहाह ...बहुत बढ़िया बिम्ब लेख ! बधाई स्वीकार करें !

Comment by वीनस केसरी on November 16, 2012 at 1:05am

सौरभ जी हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 14, 2012 at 2:53pm

//मगर गरीब रामदीन इस बार सावधान था, उसे पता था कि वो यह बोझ नहीं उठा सकता.//
एक अलग ज़मीन और लहज़े की लघुकथा. झण्डे की आँखों से बेहतर दिखा कि कर्मकाण्ड कितना हावी होता जा रहा है !

बधाई, भाई वीनसजी.. .

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