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मेरे पास नहीं
बूढ़े बरगद सी बाहें
फैलाकर
जिन्हें अनवरत 
बांट सकूं 
छांह
धरती को चीरती 
विकराल  जड़ें -
गहराइयों  की
लेती जो थाह  
पास नहीं मेरे
पीपल का जादुई
संगीत
वो  हरी- भरी
काया ,
वह पत्तों का
मर्मर  गीत 
कोई न
पूजे मुझको 
पीपल, बरगद
के मानिंद
कंटकों से
पट गयी है 
देह ऐसे-
निकट आते
हैं नहीं
खग वृन्द
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही
पड़ता  है
नागफनी!

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Comment

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Comment by seema agrawal on October 14, 2012 at 9:41pm

विनीता जी
बहुत खूब कहा आपने 
मरुथली संसार में 
रेत के विस्तार में 
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ 
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही 
पड़ता  है 
नागफनी!...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 14, 2012 at 8:04pm

मरुथली संसार में 
रेत के विस्तार में 
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ 
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही 
पड़ता  है 
नागफनी!----बहुत ही सार्थक पंक्तियाँ प्रकृति हो या इंसान वातावरण ही उनके बनने बिगड़ने का कारण होता है बहुत अच्छी रचना बधाई विनीता शुक्ला जी   

Comment by Vinita Shukla on October 14, 2012 at 1:51pm

बहुत बहुत धन्यवाद अशोक जी.

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 14, 2012 at 1:05pm

विनीता जी

             सादर, अति सुन्दर रचना,

मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही
पड़ता  है
नागफनी!
 हार्दिक बधाई स्वीकारें.

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