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कहाँ गई वो मेरे देश की खुशबु

जिसमे सराबोर  रहते थे

इंसानों के देश प्रेम के जज्बे ,

कहाँ गई वो माटी की सुगंध

जिससे जुडी रहती थी जिंदगी  

कहाँ गए वो आँगन 

जिनमे हर रोज जलते थे 

सांझे चूल्हे 

जहां बीच में रंगोली सजाई जाती थी 

जो परिचायक थी 

उस घर की एकता और सम्रद्धि की 

जिसमे खिल खिलाता था बचपन 

लगता है वक़्त की ही 

नजर लग गई उसको 

आधुनिकता नामक विष 

घुल गया वहां के परिवेश में 

विघटित हो गए आँगन 

विघटित हो गए 

बंधन 

हर जगह बीच में

दीवार नजर आती है 

बस अहम् जी रहा है 

कहाँ जा रही हैं 

इस युग की सीढियां 

पता नहीं ऊपर या नीचे !!!

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 20, 2012 at 10:34pm

बहुत बहुत शुक्रिया गौरव जी 

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 20, 2012 at 10:22pm

आदरणीया राजेश जी, मैंने खुद इस अंधी आधुनिक दौड़ का हमेशा विरोध किया है.......बहुत अच्छी रचना....बधाई.....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 20, 2012 at 10:03pm

बहुत ख़ुशी हुई आपकी प्रतिक्रिया जानकर हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 20, 2012 at 10:01pm

हार्दिक आभार रेखा जोशी जी 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 20, 2012 at 8:57pm
बहुत सुन्दर ...आदरणीया राजेश कुमारी जी ...जितना ऊपर जा रही हैं ये सीढियां उतना ही ध्वस्त करती नींव को ...काश वो प्राथमिक रिश्ते बिलकुल न टूट जाएँ  कुछ तो मिठास बची रहे ...प्यारी रचना 
भ्रमर ५ 
Comment by Rekha Joshi on June 20, 2012 at 7:39pm

Rajesh ji 

लगता है वक़्त की ही 

नजर लग गई उसको 

आधुनिकता नामक विष 

घुल गया वहां के परिवेश में 

विघटित हो गए आँगन 

विघटित हो गए 

बंधन ,bahut khub ,badhai 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 20, 2012 at 6:42pm

हार्दिक आभार प्रदीप कुमार जी 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 20, 2012 at 5:49pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी, सादर 

आधुनिकता की दौड़ में आये परिवर्तन  के प्रति चिंता स्वाभाविक है. 

बधाई. 

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