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लिख नहीं जो सकता तू सच ख़बर ज़माने की

लिख नहीं जो सकता तू सच ख़बर ज़माने की।

बोल क्या ज़रूरत है फिर क़लम उठाने की॥

 

छोड़ दे ये हसरत भी दिल कहीं लगाने की।

सह नहीं जो सकता तू ठोकरें ज़माने की॥

 

धमकियाँ वो देता है मुझको ख़ाक कर देगा,

चाल चलता रहता है घर मेरा जलाने की॥

 

हमने इस मोहब्बत में इतने ज़ख्म खाये के,

अब नहीं रही हिम्मत फिर से दिल लगाने की॥

 

आज फिर से माज़ी की याद में मैं खोया हूँ,

कोशिशें भी जारी है तुझको भूल जाने की॥

 

तोड़ता है दिल मेरा और दोस्त कहता है,

क्या अदा है तेरी भी दोस्ती निभाने की॥

 

आजकल तो ग़ैरों की महफिलें सजाते हो,

है तुम्हें कहाँ फुर्सत अपना घर सजाने की॥

 

आँख में नमी दे दी दिल को चाक कर डाला,

ये सज़ाएँ दी तुमने मुझको मुस्कुराने की॥

 

जांच ले परख ले तू बार बार “सूरज” को,

इतनी जल्दी मत करना तुम क़रीब आने की॥

                 

                        डॉ. सूर्या बाली “सूरज”

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Comment by yogesh shivhare on June 18, 2012 at 9:06pm
अल्फाज नहीं है साहब अति सुन्दर रचना 

लिख नहीं जो सकता तू सच ख़बर ज़माने की।

बोल क्या ज़रूरत है फिर क़लम उठाने की॥

 आपकी तारीफ करना मतलब सूरज को दिया दिखाना ...इसलिए अति सुन्दर  जैसा छोटा सब्द आपके लिए माफ़ कीजियेगा इससे ज्यादा बयां सब्दो के जरिये नहीं कर सकता 



Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 18, 2012 at 7:41pm

हिम्मते मरदे मददे खुदा भाई सूरज 

कुछ कहाँ दीपक दिखाना होगा सूरज 
अच्छी रचना, बधाई 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 18, 2012 at 5:43pm

आजकल तो ग़ैरों की महफिलें सजाते हो,

है तुम्हें कहाँ फुर्सत अपना घर सजाने की॥

बाकी सब ठीक , इसके बारे में क्या राय है. वाह जी वाह बधाई 

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