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आंदोलित विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने अपनी मांगे सरकार से मनवाने हेतु व्यस्ततम  चौराहे को मानव श्रृंखला बना कर घेर दिये थे, मेरे नेर्तित्व में भी एक संगठन नारेबाजी और रास्ता अवरुद्ध करने मे संलग्न था, भीड़ में कुछ मरीजों के परिजन  अपनी गाड़ियों को आगे जाने देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, राधे बाबू जोर जोर से सभी को निर्देशित कर रहे थे कि एक व्यक्ति को भी आगे नहीं जाने देना है, चाहे कुछ हों जाए | एकाएक राधे बाबू का स्वर बदला और कहने लगे कि जाने दो भाई मरीजों की गाड़ियों को जाने दो | मैं आश्चर्य से पूछ बैठा "अरे राधे बाबू ये क्या हो गया आपको,अभी तो आप कह रहे थे कि किसी को आगे नहीं जाने देना है चाहे जो हो जाए और अभी जाने देने को कह रहे है" 

राधे बाबू धीरे से बोले "उस भीड़ में मेरा भाई भी है जो पिता जी को डाक्टर के पास ले जा रहा है"

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 5, 2012 at 12:41pm

प्रिय  कुमार  जी , सस्नेह.

सराहना ,भावना हेतु आभार 
अच्छी अच्छी रचना करो तैयार 
मुख्या प्रष्ट पर जाएँ 
मनवांछित ग्रुप का बटन दबाएँ
खुल जाये जब वो पन्ना 
ऊपर  एइड करना न भूलना 
आये फिर  भी कोई दिक्कत 
पूंछने में  संकोच न करना. 
 
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 5, 2012 at 8:22am

सादर प्रणाम कुशवाहा सर

बिलकुल सही कटाक्ष किया आपने इन तथाकथित प्रतिनिधियों पर, बहुत-बहुत बधाई.
सर मैं भी बाल साहित्य ग्रुप ज्वाइन करना चाहता हूँ, क्या करूँ?
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2012 at 12:21pm

आदरणीय अशोक जी, सादर अभिवादन 

आपका स्नेह और  मार्ग दर्शन बना रहे. धन्यवाद.
Comment by Ashok Kumar Raktale on May 2, 2012 at 10:54pm

आदरणीय प्रदीप जी
              सादर, हकीकत के बहुत करीब और शिक्षाप्रद भी है ये लघुकथा. बधाई.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 2, 2012 at 3:47pm

आदरणीय सौरभ जी    (गुरुदेव जी)  , सादर अभिवादन. 

पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी.  धन्यवाद. 
 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2012 at 3:20pm

जाके पाँव न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई.. .  राधे बाबू या इन जैसे लोग इतने मायोपिक होते हैं कि उन्हें बस कुछ दूर तक की नहीं सूझता, केवल आसन्न लाभ और घिनौनी स्वार्थसाधना के.  बहुत ही सही तस्वीर निकाली है आपने, आदरणीय प्रदीपजी. 

बचपन में अण्टन चेखोव  की एक नाटिका ’गिरगिट’ जो कि इसी तरह की दोगली नीतियों पर एक सशक्त नाटिका है, के गली-मंचन (Street skit) के क्रम में हम गोहराया करते थे,  झटपट रंग बदल लो भाई, झटपट ढंग बदल लो.. 

आपकी इस लघुकथा ने अनायास उन दिनों की याद ताज़ा करा दी. सादर धन्यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 2, 2012 at 2:38pm

स्नेही महिमा जी, सादर.

दुनिया का यही दस्तूर है. बिरले मिलेंगे जो इनसे अलग हों. 
धन्यवाद. 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 2, 2012 at 2:36pm

प्रिय मृदु जी, सस्नेह. 

आपकी हार्दिक बधाई दिल से स्वीकार की. आप bhi अपना नाम roshan करें. शुभ kamna. 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 2, 2012 at 2:34pm

आदरणीय बागी  जी  , सादर 

आपके द्वारा की गयी प्रशंशा सर माथे पर. 
क्रष्ण और सुदामा की कथा याद आ गयी. 
आप अंतर्यामी  हैं प्रभु. बहुत बहुत आभार आपका. 
Comment by MAHIMA SHREE on May 1, 2012 at 10:30pm

आदरणीय प्रदीप सर , सादर प्रणाम ,

आपकी कथा गिरगिट के लिए बहुत -२ बधाई ...सच इंसान अपने लिए तुरंत नियम तोड़ देता है और बदल जाता है ..

बहुत अच्छी प्रस्तुति

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