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तू क्या-क्या ना सहती आई है l

 

कभी गंगा कहते हैं तुझको   

कभी होती है देवी से उपमा    

मन बिशाल ममता की मूरत

और सहनशक्ति में धरती माँ 

रूप अनोखे हैं अनगिन तेरे 

युग की गाथा में लक्ष्मी बाई है l

 

तू क्या-क्या ना सहती आई है l

 

तू ओस में डूबी कमल पंखुडी

रजनीगन्धा और हरसिंगार 

सुरभित पुरवा के आँचल सी 

घर में खिलती बन कर बहार

माटी सी घुल-घुल कर भी तू    

ना कभी चैन से जीने पाई है l

 

तू क्या-क्या ना सहती आई है l

 

हर व्यथा को अंदर ही पीकर  

घर-मधुबन को सींचे जाती 

बाती सी बनकर जलती रहती

है धरती की ऊँची तुझसे छाती 

पर पापी दुनिया की चालों में

कभी इज्ज़त भी तूने गंवाई है l

 

तू क्या-क्या ना सहती आई है l

-शन्नो अग्रवाल

 

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 18, 2012 at 11:23pm

ek stri ke sambandh main. vastvik chitran, badhai.

Comment by Shanno Aggarwal on April 17, 2012 at 1:40pm

अरुण जी, राजेश कुमारी जी, संदीप जी एवं सोनम जी, आप सभी की सराहनीय अभिव्यक्ति से मन को अत्यंत खुशी मिली...रचना लिखना सफल हुआ. हार्दिक आभार व धन्यबाद.  

Comment by Abhinav Arun on April 17, 2012 at 1:11pm

अति सुन्दर रचना शन्नो जी " आँचल में है दूध और आँखों में पानी " की याद हो आई हार्दिक बधाइयाँ !


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Comment by rajesh kumari on April 17, 2012 at 12:52pm

vaah shanno ji aurat ke kitni roop simat kar aa gaye aapki rachna me bahut sundar

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 17, 2012 at 12:19pm

रूप अनोखे हैं अनगिन तेरे 

युग की गाथा में लक्ष्मी बाई है

आदरणीया शन्नो जी! सुन्दर कविता की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें|

Comment by Sonam Saini on April 17, 2012 at 9:59am

Good Morning mam

Very beautiful poem.

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