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बन के काफ़िर जिसको पूजें कोई मूरत ही नहीं,

झेल ली है इतनी मुश्किल कुछ ये आफ़त ही नहीं;

*
साथ मेरे रह न पाया अजनबी ही तू रहा,
साफ़ कहना था तुम्हें मुझसे मुहब्बत ही नहीं;

*

सब के सब ख़ुशबाश हो जाएँ न ग़म कोई रहे,

काश ऐसा हो सके पर ऐसी सूरत ही नहीं;

*
भूल जा हर रंज उर ग़म माफ़ कर दे तू इसे,
रह गई बस कुछ की अब ये सब की सीरत ही नहीं;

*
हाँ ये मुफ़लिस था सही, लेकिन शराफ़त थी बहुत,
खेलता लाखों में है लेकिन शराफ़त ही नहीं;

*
उसने थामी राह वो के आज ऊंचाई पे है,
रास्ता मुझको मिला जो उस पे शुहरत ही नहीं;

*

जख़्म माज़ी के हैं ताज़ा, हाँ रखे हैं नोच कर,

ज़ह्र मुझको दे दवाओं की ज़रूरत ही नहीं;

*

हम कभी थे हमनवा पर दूर कैसे हो गए,

तेरे मेरे बीच कोई भी अदावत ही नहीं;

*
है पशीमाँ इस वतन का आम इंसाँ देखिये,
हल हो ये मसले यहाँ इसकी इजाज़त ही नहीं;

*
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;

*
जब ऐ वाहिद हर जगह होगा अमन ओ चैन बस,
इब्तिदा इसकी हो ऐसा इक महूरत ही नहीं;

(सुधारे या नए जोड़े गए हिस्सों को लाल रंग में रखा है)

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 19, 2012 at 12:20pm

हार्दिक आभार प्रदीप जी! ऐसी ही सोच रखता हूँ| वैसे 'शठे शाठ्यं समाचरेत' पर गहन विश्वास रखता हूँ| :))

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 18, 2012 at 11:19pm

बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;

snehi sandip ji, sadar

pyar bantte chalo. badhai.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 18, 2012 at 3:02pm

आदरणीय सौरभ जी,

मैं जानता था कि ऐसी कोई बात आ सकती है| अतः आपके कथनानुसार मैं इस अदना सी ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन करके कुछ ही देर में प्रस्तुत करता हूँ| मुक्तकंठ से सराहना हेतु आपका कृतज्ञ हूँ| सादर, :-)

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 18, 2012 at 3:01pm

प्रिय भ्रमर जी,

आपने तो हमेशा से ही सराहा है और सीखने को उद्यत किया है| ये चित्र वास्तव में मेरे ही बनाये हुए हैं मगर मैं चित्रकार नहीं हूँ| :-) आपका हार्दिक आभार,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 18, 2012 at 2:59pm

आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है सरिता जी!! :-)

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 18, 2012 at 2:59pm

आदरणीय अभिनव भईया,

सादर, आपके प्रोत्साहन से निश्चय ही और बेहतर करने का संबल प्राप्त हुआ है| हार्दिक आभार आपका,

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 17, 2012 at 11:26pm

भूल जा हर रंज उर ग़म माफ़ कर दे तू इसे,
रह गई बस कुछ की अब ये सब की सीरत ही नहीं;

बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;

काशी वासी भाई ..गजब के शेर ..गंभीर... सुन्दर सन्देश ....ये छवियाँ चित्र नायाब क्या आप चित्रकार भी हैं ?
भ्रमर ५ 



सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 17, 2012 at 10:40pm

लाललाला लाललाला लाललाला लालला

और ग़ज़ल अपने शेरों के अंतर्निहित कहन को सँवारती हुई ऊँची होती चली गयी है. 

लेकिन एक मूल बात जो पकड़ से छूट गयी है वह है, काफ़िया का निर्धारण. 

आपके मतले के अनुसार काफ़िया ऊरत   होता है. अब इसके बाद सभी शेर ऐसे ही निर्धारित होने चाहिये.

बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;

बहुत सुन्दर कहन,  बधाई ........

Comment by Sarita Sinha on April 17, 2012 at 9:59pm

संदीप जी नमस्कार, बहुत खूब..हर शेर अपने आपमें अलग अंदाज़ लिए...बधाई स्वीकार कीजिये...

Comment by Abhinav Arun on April 17, 2012 at 1:31pm

है पशीमाँ इस वतन का आम इंसाँ देखिये,
हल हो ये मसले यहाँ इसकी इजाज़त ही नहीं;

*
बस मुहब्बत बांटता चल और लग सबके गले,
इस जहाँ में इससे बढ़ कोई इबादत ही नहीं;

आदरणीय श्री वाहिद जी एक से बढ़कर एक शेर शानदार मुकम्मल ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई  आपको ! !

कृपया ध्यान दे...

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