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121 22 121 22 121 22

सिलाई मन की उधड़ रही साँवरे रफ़ूगर
कि ज़ख्म दिल के तमाम सिल दे अरे रफ़ूगर

उदास रू पे न रंग कोई उदास टांको
करो न ऐसा मज़ाक तुम मसखरे रफ़ूगर

हज़ार ग़म पे छटाक भर की ख़ुशी मिली है
तुझे अभी कुछ पता नहीं मद भरे रफ़ूगर

कहीं पलक से टपक न जाये हरेक आँसू
भला हो तेरा न और दे मशविरे रफ़ूगर

यही भरोसा है एक दिन फिर से आ मिलेंगे
यहीं कहीं खो गये सभी आसरे रफ़ूगर

कि 'ब्रज' इसी इक उधेड़बुन में रहे हमेशा
छुपाऊँ कैसे ह्रदय के सब घाव रे रफ़ूगर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 15, 2023 at 9:09am

आदरणीय धामी जी आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार...सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 9, 2023 at 1:36pm

आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा हुआ है। हार्दिक बधाई। भाई समर जी के सुझाव से यह और निखर गयी है।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 9, 2023 at 7:47am

दूसरी बात 'दो' शब्द की जगह "दे" शब्द उचित होगा ,देखिएगा I 

दरअसल "साँवरे रफूगर" प्रभु श्री कृष्ण को संबोधन किया है इसलिए मुझे लगा 'दो' सम्मान सूचक है...लेकिन आपके ध्यानाकर्षण से पता चल रहा है "दे" भी ठीक रहेगा...सादर

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 9, 2023 at 7:42am

आदरणीय समर कबीर जी आपकी सूक्ष्म विवेचना से ग़ज़ल में निखार ही आएगा...जरूरी सुधार बिल्कुल किये जा सकते हैं...सह्रदय धन्यवाद

Comment by Samar kabeer on February 8, 2023 at 7:30pm

जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I 

'सुराख़ दिल के तमाम सिल दो अरे रफ़ूगर'---- इस मिसरे में सहीह शब्द 'सूराख़' २२१ है,दूसरी बात 'दो' शब्द की जगह "दे" शब्द उचित होगा ,देखिएगा I 

'भला हो तेरा न और दे मशवरे रफ़ूगर'---इस मिसरे में सहीह  शब्द 'मशविरे' है, देखिएगा I 

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