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अहसास की ग़ज़ल:मनोज अहसास

221   2121    1221    212

बेहद ज़रूरी है तू सभी को बिसार कर,
कुछ रोज अपने आप से जी भर के प्यार कर।

उलझन हो तेरी खत्म, मेरा दर्द भी मिटे,
इक बार मेरे दिल पे ज़रा दिल से वार कर।

कुछ फासले अधूरे हैं अब भी हमारे बीच,
इतना सफर इक दूसरे के बिन गुजार कर।

लगता है मैं भी मतलबी सा हो गया हूँ अब
सारी उमर की ख्वाहिशें दिल में ही मार कर।

अहसान भी हो जाएगा और दाम भी अलग
इस दौर में तू सोच समझ कर उधार कर।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on November 11, 2022 at 6:57pm

परम् आदरणीय समर साहब सादर प्रणाम

गलती के लिए क्षमा प्रार्थना

ग़ज़ल पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिय और इस्लाह देने के लिए हार्दिक आभार

सादर

Comment by मनोज अहसास on November 11, 2022 at 6:56pm

आदरणीय Zaif साहब ग़ज़ल पर उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक आभार 

सादर

Comment by Samar kabeer on November 5, 2022 at 7:12pm

जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I 

'इतना सफर इक दूसरे के बिन गुजार कर'-- ये मिसरा बह्र में नहीं है देखें I 

'सारी उमर की ख्वाहिशें दिल में ही मार कर'--- इस मिसरे में सहीह शब्द "उम्र " 21 है ,देखिएगा I 

कुछ समय पहले आपकी एक ग़ज़ल पर टिप्पणी दी थी उसका जवाब आज तक नहीं मिला ,आपको इतनी ही व्यस्तता है तो ग़ज़ल पोस्ट ही क्यों करते हैं ?

Comment by Zaif on November 3, 2022 at 11:50pm

आदरणीय अहसास जी, बहुत प्यारी ग़ज़ल। दाद स्वीकार करें।

लगता है मैं भी मतलबी सा हो गया हूँ अब
सारी उमर की ख्वाहिशें दिल में ही मार कर। वाह

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