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महीना-ए-मुहर्रम में मह-ए-रमज़ान ले आये-ग़ज़ल (८९ )

(1222 *4 )

.

महीना-ए-मुहर्रम में मह-ए-रमज़ान ले आये

ग़रीबों के रुख़ों पर गर कोई मुस्कान ले आये

**

किनारे पर हमेशा बह्र-ए-दिल के एक ख़तरा है

न जाने मौज ग़म की  कब कोई  तूफ़ान ले आये

**

नहीं है मोजिज़ा तो और इसको क्या कहेंगे हम

ख़ुशी का ज़िंदगी में पल कोई  अनजान ले आये

**

ये कैसा वक़्त आया है न जाने कब कोई मेहमाँ

हमारी ज़िंदगी में  मौत का सामान ले आये 

**

कभी सोचा नहीं था घर बनेगा एक दिन ज़िंदाँ 

मगर इस बात पर हम आजकल ईमान ले आये

**

हमारे मुल्क में आज़ादियों का सिर्फ़ है   मतलब

यहाँ आफ़त  कोई भी सरफिरा   नादान ले आये

**

मुहब्बत में जो ख़ुश्बू है नहीं मुमकिन किसी शय में

मुक़ाबिल कोई भी इसके भले लोबान ले आये

**

पढ़ाता  पाठ  नफ़रत का बताओ कौन सा मज़हब

चुनौती है कोई  गीता कि वो क़ुरआन ले आये

**

मुहब्बत नापना मुमकिन कहाँ होता है दुनिया में

'तुरंत' ऐसा  कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये

**

गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on April 24, 2020 at 11:10pm

आदरणीय TEJ VEER SINGH जी, उत्साहवर्धन के लिए दिली शुक्रिया | 

Comment by TEJ VEER SINGH on April 24, 2020 at 9:36pm

हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी जी। बेहतरीन गज़ल।

ये कैसा वक़्त आया है न जाने कब कोई मेहमाँ

हमारी ज़िंदगी में  मौत का सामान ले आये 

Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on April 24, 2020 at 7:48pm

आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर "  साहेब , आदाब , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ | उर्दू के कई शब्दों में मुझे दिक्कत रहती है , लहज़े से कुछ लफ्ज़ पुल्लिंग होते हुए स्त्रीलिंग होते हैं और कुछ स्त्रीलिंग होते हुए पुल्लिंग | ध्यान आकर्षित करने के लिए हार्दिक आभार | 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on April 24, 2020 at 5:46pm

आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब ।

मुकम्मल ग़ज़ल शानदार हुई है, शेअ'र दर शेअ'र दाद पेश करता हूँ ।

अंतिम मिसरे में शायद लिपिकीय त्रुटि हो गयी है। मीज़ान यानि तराज़ू  शब्द  पुल्लिंग है न कि स्त्रीलिंग।

'तुरंत' ऐसी कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये के स्थान पर 'तुरंत' ऐसा कहीं है तो कोई मीज़ान ले आये उचित होगा ।सादर। 

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