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एक तरही गजल (रमेश कुमार चौहान)

(बहर - 2122,2122,212)

पैर में क्यो गुदगुदी होने लगी
याद तेरी बेबसी होने लगी

वक्त काफी हो गया तुम से मिले
तेरी सूरत अजनबी होने लगी

अपने हाथो घाव ताजा कर रहा
जख्म स्याही लेखनी होने लगी

ये इबारत प्यार का है चेहरा
हर नए गम से खुशी होने लगी

तू नही तेरी निशानी ही सही
देख लो संजीवनी होने लगी
------------------------
मौलिक एवं अप्रका‍शित

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Comment by sombirnaamdev on February 9, 2014 at 12:32am

वक्त काफी हो गया तुम से मिले
तेरी सूरत अजनबी होने लगी

kya baat hai bahut badhiya khyalat

Comment by सूबे सिंह सुजान on February 8, 2014 at 5:03pm

sunder kha hai..
वक्त काफी हो गया तुम से मिले
तेरी सूरत अजनबी होने लगी...wah

Comment by बृजेश नीरज on February 8, 2014 at 11:24am

आदरणीय रमेश जी सुन्दर ग़ज़ल है! आपको हार्दिक बधाई!

//जख्म स्याही लेखनी होने लगी// इस मिसरे को नहीं समझ सका! आपसे मार्गदर्शन की अपेक्षा है!

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 7, 2014 at 7:37pm

आदरणीया मीनाजी, सरिताजी एवं कुतीजी इस विधा में मै अभी संघर्षरत हू इस प्रयास को सराहने के लिये सादर साधुवाद

Comment by coontee mukerji on February 6, 2014 at 11:11pm

वक्त काफी हो गया तुम से मिले
तेरी सूरत अजनबी होने लगी.......कहते हैं आँखों से दूर तो दिल से भी दूर......बहुत सटीक है.सादर

Comment by Sarita Bhatia on February 6, 2014 at 9:01pm

सुन्दर 

Comment by Meena Pathak on February 6, 2014 at 4:56pm

बहुत सुन्दर आ० रमेश जी .. बधाई 

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