“दर्द के दायरे” यह ख़याल मुझको एक दिन नदी के किनारे पर बैठे “ जाती लहरों ” को देखते आया । कितनी मासूम होती हैं वह जाती लहरें, नहीं जानती कि अभी कुछ पल में उनका अंत होने को है । जिस पल कोई एक लहर नदी में विलीन होने को होती है, ठीक उसी पल एक नई लहर जन्म ले लेती है .... दर्द की तरह । दर्द कभी समाप्त नहीं होता, आते-जाते उभर आती है दर्द की एक और लहर, और अंतर की रेत पर मानो कुछ लिख जाती है । मेरी एक कविता से कुछ शब्द ...
उफ़्फ़ ! कल तो किसी की चित्ता पर भी
मेरे आँसू न बहे.... कया करूँ
क्या इतना सूख गया हूँ मैं ..... ?
ज़ाहिर है कि दर्द के दायरों में छटपटाहट है जो “उस” पल न जीने देती है, न रोने देती है, हाँ बस “उस” दर्द को सोचने देती है । सोचते-सोचते दर्द के दायरों में उत्पन्न होती है एक और कविता, ठीक नदी में उठती लहरों की तरह । संवेदनाएँ भावों में बहती, लिखने को विवश करती हैं। यह है अंतर्मन की कशमकश को प्रदर्शित करती मेरी कवितायों की उत्पत्ति ।
मेरी कवितायों को पढ़ने के उपरान्त एक माननीय पाठक ने कभी मुझसे पूछा, “इतनी वेदना क्यूँ ?” ... उत्तर में यही कहूँगा कि नदी में लहरें कभी समाप्त होती हैं क्या ? खामोश हवायों के बीच जब लगता है कि सब कुछ शांत है, समतल जल के नीचे पानी हिल रहा होता है ... और सांसारिक हवा का एक और झोंका आते ही जैसे वह पानी तुरंत चौकन्ना हो जाता है ... दर्द चौकन्ना हो जाता है।
यह माननीय पाठक मेरी कवितायों पर प्रतिक्रिया प्राय: काव्य में देती हैं, अत: वह मेरी कवितायों को केवल पढ़ती ही नहीं,उनको जी लेती हैं। इस संदर्भ में मैं कवि उमाकांत मालवीय जी के कथन से सहमत हूँ। उन्होंने कहा ...
कविता पढ़ना, कविता को रचना एक बात है,
और कविता को जीना नितांत भिन्न बात है ।
कविता पढ़ना, कविता रचना और कविता जीना
यह तीनो गुण एक व्यक्ति में आ पाना अत्यंत
दुर्लभ स्थिति है । (“गंगा एक अविराम संकीर्तन में”)
जीवन में वह मोड़ भी आते हैं जब “सही” और “गलत” जानते हुए भी भावनायों के कारण हम “सही” की और नहीं जा पाते । तब उठती है अंतर्द्वंद्व की प्राकाष्ठा ... तब सवाल और सवालों के जवाब अपने मान्य खो बैठते हैं और भावों की सृष्टि पर जन्म लेती हैं और कविताएँ। ऐसे में अनुभव की सचाई भीतर से बाहर पन्ने पर उतरती है। अपनी इस सचाई को जीना मेरे लिए अनिवार्य रहा है, अत: जो भी लिखता हूँ, वह मेरे अनुभवों की सचाई है।
“खालीपन“ का “भारीपन”... यह एक वह विचित्र मनोदशा है जो प्रेरणा-स्वरूप मेरा हाथ, मेरी कलम पकड़ कर लिखने को मुझ को झकझोरती है। कोई कुछ भी कह ले, यह लिखना आसान नही है, क्यूँकि खालीपन के भारीपन को पन्ने पर उतारते मैं प्राय: मानो स्वयं खाली-सा हो जाता हूँ । इसका अभिप्राय यह नहीं कि दर्द की क्षती हो जाती है । यही तो द्वंद्व है ... उस समय दर्द तरल नहीं होता, ठोस हो जाता है ... मन पर जैसे सचमुच पत्थर-सा भार हो।
मेरी कलम की ताकत दर्द है जो निजी होकर भी निजी नहीं होता। अपना दर्द तो अपना ही है, मुझ को औरों का दर्द भी अपना-सा लगता है। दर्द निजी नहीं है, तभी तो किसी की आत्मीय कवितायों को पढ़ कर प्राय: पाठक को लगता है कि जैसे वह कृति उसके लिए ही रची गई हो, कि जैसे लेखक ने उसके ही भावों को शब्दबद्ध किया हो।
दर्द का आधार अलग हो सकता है, उसकी भूमिका अलग हो सकती है, परन्तु दर्द में प्रच्छन आभास एक ही होता है। इसीलिए दर्द की कविता संवेदनशील पाठक को अच्छी लगती है और पढ़ते ही आत्मीय हो जाती है।
यह आलेख " दर्द के दायरे ” हिन्दी के उन पाठकों को समर्पित है जो “खालीपन” के “भारीपन“ को अनुभव करने से कतराते नहीं हैं, अपितु उसे प्रेरणा-स्वरूप वरदान समझ कर अपने और “औरों” के प्रति संवेदनशील रहते हैं।
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर जी, बहुत संवेदनशील विषय पर अत्यंत ही प्रभावी आलेख।
बहुत बहुत बधाई आपको।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,आपके आलेख ने रूह को झंझोड़ दिया, आपने जो भी लिखा है वो तज्रिबे और मुशाहिदे का सार है,और इस बात की गहराई को वही समझ सकता है जो इस पीड़ा से गुज़रा हो,मैं तो इस दायरे में ही रहकर जीवन व्यतित कर रहा हूँ, इसलिये इसकी गम्भीरता को बहुत अच्छी तरह समझ रहा हूँ ।
उस प्रस्तुति के लिए आपको ढेरों बधाइयां ।
प्रिय भाई,इस प्रस्तुति पर पुनः आता हूँ ।
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