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कोई पूछे तो मेरा हाल बताते भी नहीं,
आशनाई का सबब सबसे छुपाते भी नहीं।
शेर कहते हैं बहुत हुस्न की तारीफ़ में हम
पर कभी अपनी ज़बाँ पर उन्हें लाते भी नहीं।
जब भी देते हैं किसी फूल को हँसने की दुआ,
शाख़ से ओस की बूंदों को गिराते भी नहीं।
ये तुम्हारी है अदा या है कोई मजबूरी,
प्यार भी करते हो और उसको जताते भी नहीं।
सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से पहचान करोगे कैसे,
बात करते हो मगर बात बताते भी नहीं।
ये मरासिम का अजब मोड़ है जिस पर तुमको,
याद हम करते नहीं दिल से भुलाते भी नहीं।
तिश्नगी दीद की वो और बढ़ा देते है,
"साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रवि शुक्ला जी को सादर नमस्कार , बहुत अच्छी हुई गजल उस पर इस्लाह भी जानदार, मुग्ध हूँ पढ़कर
आ. भाई रवि जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
आदरणीय रवि शुक्ला जी, खूबसूरत अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
'जब भी देते हैं किसी फूल को हँसने की दुआ,
शाख़ से ओस की बूंदों को गिराते भी नहीं'
ये शेर ख़ास तौर पर अच्छा लगा. शेष समर साहब कह चुके हैं.
सादर
जनाब रवि शुक्ला जी आदाब,तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,ग़ौर करें ।
'शेर भी कहते उस हुस्न की तमहीद के साथ'
ये मिसरा लय में नहीं है, इस शैर को यूँ कह सकते हैं:-
'शे'र कहते हैं बहुत हुस्न की तारीफ़ में हम
पर कभी अपनी ज़बाँ पर उन्हें लाते भी नहीं'
'सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से पहचान करोगे कैसे,
बात करते हैं ये और बात बताते भी नहीं'
इस शैर का सानी मिसरा यूँ करें :-
'बात करते हो मगर बात बताते भी नहीं'
बाक़ी शुभ शुभ
जनाब सत्यम सिंह "प्रभाकर" जी आदाब,आपकी टिप्पणी पहली बार देखी तो आपको ये बताना मेरा फ़र्ज़ है कि इस मंच पर सोशल मीडिया की तरह टिप्पणी नहीं की जाती,यहाँ रचनाकार को पूरे सम्मान के साथ संबोधित करके उसकी प्रस्तुत रचना पर अपनी प्रतिक्रया दी जाती है,अगर रचना अच्छी है तो उसकी तारीफ़ खुले दिल से की जाती है,और अगर उसमें कोई दोष नज़र आता है तो उसे भी शिष्टता के साथ इंगित किया जाता है, क्योंकि इस मंच का उद्देश्य सीखना सिखाना है, उम्मीद है आप मेरी बात की गम्भीरता समझ गए होंगे?
आद0 रवि शुक्ल जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन ग़ज़ल। मतला लाजबाब। हरेक शैर उम्दा। दाद के साथ मुबारकबाद पेश कर्रा हूँ इस ग़ज़ल पर।
अति उत्तम।
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