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दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो

...

दुश्मन भी अगर दोस्त हों तो नाज़ क्यूँ न हो,
महफ़िल भी हो ग़ज़लें भी हों फिर साज़ क्यूँ न हो ।

है प्यार अगर जुर्म मुहब्बत क्यूँ बनाई,
गर है खुदा तुझमें तो वो, हमराज़ क्यूँ न हो ।

रखते हैं नकाबों में अगर राज़-ए-मुहब्बत,
जो हो गई बे-पर्दा तो आवाज़ क्यूँ न हो ।

दुश्मन की कोई चोट न होती है गँवारा,
गर ज़ख्म देगा दोस्त तो नाराज़ क्यूँ न हो ।

संगीत की तरतीब में तालीम बहुत है,
फिर गीत ग़ज़ल में सही अल्फ़ाज़ क्यूँ न हो ।

झेला है उसने इश्क़-ए-समंदर में पसीना,
वो ईंट से रोड़ा बना अंदाज़ क्यूँ न हो ।

इंसान की औलाद हूँ, न हिन्दू मुसलमाँ,
है 'हर्ष' मेरा नाम तो फ़ैयाज़ क्यूँ न हो ।

*****

मौलिक व अप्रकाशित

हर्ष महाजन

Views: 788

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 25, 2018 at 9:55am

बढ़िया रचना है आदरणीय महाजन जी..सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2018 at 7:02am

आ हर्ष जी,

उर्दू में 3 टाइप के ज़ हैं इसलिए ज़ पर समाप्त होने वाले काफ़िये में सावधानी आवश्यक है। यह ठीक ऐसा है जैसे जोश और दोष काफ़िया नहीं हो सकते।

लय छंद है और काफ़िया तुकांतता। ग़ज़ल होने के लिए लय एयर तुकांत दोनों आवश्यक हैं। दरअसल सारी ग़ज़ल बुनी ही जाती है क़ाफिये के गिर्द।

अतः इसे संशोधित करें। पटल पर क़ाफिये के विधान संबंधित विस्तृत कारी उपलब्ध है।

सादर

Comment by Harash Mahajan on March 25, 2018 at 12:42am

आदरणीय समर जी ।सर बहर

221 1221 1221 122 

आखिर में

क्युँ1/ना2/है2=122

सादर

Comment by Harash Mahajan on March 25, 2018 at 12:11am

आदरणीय समर जी आदाब । सर क़ाफ़िया दोष एल लय में भी है? क्या एक जैसे वर्ण रखने ज़रूरी हैं ? मतले में इसी लिए राज़ ओर फरियाद रखा है ।

  • कृपया मार्गदर्शन कीजिये।  क्या यहां सिर्फ वही काफिये चलेंगे जो 'ज' वर्ण पर समाप्त होंगे ? अगर ऐसा ही है तो उन्हीं काफियों के संग इस कृति को दुबारा कलम बध्द करता हूँ सर ।
  • सादर
Comment by Samar kabeer on March 24, 2018 at 6:20pm

जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,पूरी ग़ज़ल में क़ाफ़िया दोष है,देखियेगा ।

दूसरी बात ग़ज़ल के साथ अरकान लिखने का नियम है,जो आपने नहीं लिखे?

कृपया ध्यान दे...

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