212 1222 212 1222
 बज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है 
 महकी सी फ़ज़ाएँ हैं कौन आने वाला है 
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 चाँद जैसे चेहरे पे तिल जो काला काला है 
 मेरे घर के आँगन में सुरमई उजाला है 
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 इतनी सी गुज़ारिश है नींद अब तू जल्दी आ 
 आज मेरे सपने में यार आने वाला है
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 जागना वो रातों को भूक प्यास दुख सहना 
 माँ ने अपने बच्चों को मुश्किलों से पाला है 
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 उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए-दुनिया है 
 इस जहान-ए-फ़ानी को जो बनाने वाला है 
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 मुफ़लिसी से रिश्ता है ग़म से दोस्ती अपनी 
 मुश्किलों को भी हमने दिल मे अपने पाला है 
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 उसकी शोख़ नज़रों का ये कमाल है देखो  
 ज़िंदगी में अब मेरी हर तरफ उजाला है 
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 भूल वो गया मुझको ग़म नहीं रज़ा लेकिन 
 उसकी याद को दिल में अब तलक सँभाला है 
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 मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय सलीम जी..मलते से लेकर सभी शेर खूबसूरत हुए..सादर
मतले के ऊला में 'वज़्म' टंकण त्रुटि ।
हुस्ने मतला में 'कला' टंकण त्रुटि ।
4थे शैर में 'मुश्किलों' में 'क' के नीचे बिंदी,टंकण त्रुटि ।
छटे शैर में भी यही ग़लती ।
आ. भाई सलीम जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सलीम रज़ा साहिब आदाब " बही उम्दा ग़ज़ल |गुणी जन उस पर बता चुके है | मुझे "चाँद जैसे चेहरे पे तिल जो काला कला है " में टंकण त्रुटी लगती है ... 'काला काला' तो ठीक \\आदाब
आपकी जिद्दत आपको मुबारक हो ।
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