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स्वेटर (लघुकथा)

जनवरी की हड्डी कंपा देने वाली ठंड..मैं ऊपर से नीचे तक गर्म कपड़ों के बावजूद कांप रही थी ।कक्षा में पहुंच कर एक नजर, मेरे सम्मान में खड़े सभी बच्चों पर डाली और बैठने का इशारा किया । तभी मेरी नजर उन बच्चों पर पड़ी जिनके बदन पर कपड़ों के नाम पर बस कपड़ों का नाम था।मैंने उन सभी बच्चों को खड़ा कर दिया ।
"क्यों!स्वेटर कहां है तुम्हारे?स्कूल से स्वेटर के लिये पैसा मिला ना तुम लोगों को फिर..?"लहजा सख्त था । बच्चे सहम गये ।फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा पैसा अपने निजी स्वार्थ पर खर्च कर चुके है ।और वो मासूम डांट के डर से सफाई दे रहे थे-"दीदी!गेहूं की फसल पर स्वेटर आ जायेगा"
"कब"मैंने हैरानी से पूछा ।
"दो महीना बाद "।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Omprakash Kshatriya on October 21, 2015 at 7:51pm

आदरणीय  Rahila  जी आप की लघुकथा ने मजदूर वर्ग की मज़बूरी का खाका खींच दिया. आप का बधाई.

Comment by Rahila on October 21, 2015 at 7:50pm
बहुत आभार आद. नीता जी! बहुत सही बात कही आपने । नंगे पैर ,नंगी पीठ, रोंगटें खड़े, दोनों हथेलियां बगल में दबाये जब मासूम बच्चे पढ़ने आते है तो किस क़दर तकलीफ होती है शब्दों में ब्यां करना मुश्किल है ।
Comment by Nita Kasar on October 21, 2015 at 7:33pm
मानवीयता को झकझोरने वाली कथा है राहिला जी बच्चा नहीं जानता ये स्थिति कैसे क्यों बनी फ़सल आते आते ठंड का जाना संभव है या उसे बहलाया गया अबोध बच्चा क्या जाने दिल से बधाईयां आपके लिये ।
Comment by Rahila on October 21, 2015 at 3:48pm
बहुत आभार आपका आदरणीय मिथलेश वामनकर जी! जो आप सब ने मेरे प्रयास को सराहा ।बहुत शुक्रिया ।
Comment by Rahila on October 21, 2015 at 3:39pm
बहुत -बहुत आभार आदरणीय रवि प्रभाकर जी!,आपने इतने सुन्दर शब्दों में हौसला अफज़ाई की ।आपका आशीर्वाद मिला ये मेरे लिये बहुत खुशी की बात है । बहुत शुक्रिया ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 3:22pm

आदरणीया राहिला जी बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. साथ ही आदरणीय रवि प्रभाकर जी जैसे लघुकथाकार से दाद मिल गई है इसके लिए विशेष बधाई 

Comment by Ravi Prabhakar on October 21, 2015 at 1:24pm

बहुत बढ़ीया आदरणीय राहिला जी। चुस्‍त व कटीली लघुकथा कही आपने। कथा के अंत ने अंदर तक झंझोर के रख दिया। /फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा पैसा अपने निजी स्वार्थ पर खर्च कर चुके है ।/ कथा की यह पंक्‍ित मजदूर वर्ग की विवशता की ओर भी इशारा कर रही है जो अबोध बच्‍चों के स्‍वेटर के बजाए एक-दो दिन के खाने को प्राथमिकता देते हैं और यही पंक्‍ित किसी बाप या घर के किसी और सदस्‍य द्वारा मासूम के शोषण को भी दिखा रही है जो अपने व्‍यसन की वजह से बच्‍चे के स्‍वेटर तक के पैसे को भी नहीं छोड़ता। पाठक इस पंक्‍ित का अर्थ चाहे जैसे ग्रहण करे। इस यथातथ्‍यम व प्रभावोपादक कथा हेतु आपको अत्‍यंत शुभकामनाएं।

Comment by Rahila on October 21, 2015 at 12:08pm
बहुत आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी ।
Comment by TEJ VEER SINGH on October 21, 2015 at 12:02pm

हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी!सुन्दर लघुकथा!

Comment by Rahila on October 20, 2015 at 3:39pm
बहुत आभार आपका आदरणीया प्रतिभा जी ।

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