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अनबूझा मौसम

आसमानी बिजली

मूसलाधार बारिश

फिर सूरज की चमकती किरणें

डाल पर फूल का नव रूप धर आना

मौसम के बाद एक और मौसम ...

यह सब सिलसिला है न ?

पर किसी एक के चले जाने के बाद

यहाँ कहीं नए मौसम नहीं आए

एक मौसम लटक रहा है

उदासी का

डाल पर रुकी, लटक रही टूटी टहनी-सा

भय और शंका और आतंक का मौसम

भिगोए रहता है पलकों को

आधी रात

क्या नाम दूँ

टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े

कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?

----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on December 16, 2014 at 10:26pm

सुन्दर रचना आदरणीय विजय निकोर सर ,बधाई !

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 16, 2014 at 8:37pm
सिलसिला है , चलता रहे , अच्छा है ,
रुक जाए , एक उलझन सी होती है ,
टूट जाये सिलसिला तो टीस सी होती है ,
यूँ तो हर रात की सुबह होती है ,
बस टूटे सिलसिले का अजीब मौसम हैं ,
एक उसी की बदली नहीं होती है।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति प्रकट करती रचना , बहुत बहुत बधाई , आदरणीय विजय निकोर जी , सादर।
Comment by Sushil Sarna on December 16, 2014 at 7:27pm

क्या नाम दूँ
टूटे विश्वास का धुँधलापन ओढ़े
कुहरीले अनबूझे इस मौसम को आज?

वाह आदरणीय वाह … बहुत ही सुंदर और सटीक अंतर्व्यथा पर हृदय को कचोटता प्रश्न .... इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोर जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2014 at 6:05pm

आदरणीय विजय निकोर सर लाजवाब हृदयस्पर्शी रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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