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221 2122 221 2122

 

शब्दों में पत्थरों को भर मारने की आदत

यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत

 

हमने मुहब्बतों में झेले सितम हज़ारों

दीवार पे हमें है सर मारने की आदत

 

ईमानो हक की बातें हैं करते आज वे ही

जिनको है भीड़ में छुप कर मारने की आदत

 

हालात दर्द को पैहम यूँ बढ़ाये उसपे

ऐ हुक्मराँ तेरी नश्तर मारने की आदत

 

उड़ना जिन्हे है वो उड़ ही जाते हैं परिन्दे

उनको नही ज़मीं पे पर मारने की आदत

 

(मौलिक तथा अप्रकाशित)

 

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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:25pm

आदरणीय नीरज जी आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:23pm

भाई तपनजी आपका शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:23pm

आदरणीया मीनाजी आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:22pm

आदरणीया सरिता जी आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:22pm

आदरणीय श्याम नारायण सर आपका आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:21pm

आदरणीय लक्ष्मण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 11:21pm

आदरणीय गिरिराज सर आपका आभार 

Comment by Saarthi Baidyanath on January 28, 2014 at 10:58am

एक उम्दा कहन के साथ ग़ज़ल कही है आपने जनाब  शिज्जु शकूर साहिब !...बहुत बढ़िया ! जोरदार आगाज़ हुआ है ..

हर बात पे है क्यूँ पत्थर मारने की आदत

यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत....वाह जी वाह !

 

Comment by वीनस केसरी on January 28, 2014 at 1:36am

ग़ज़ल में कहन की परवाज़ तो ऊंची है भाई मगर लगभग हर शेर में शिकस्ते नारवा के कारण गंभीर अटकाव हो रहा है .. आप एक बार देख लें .. इस ग़ज़ल में तो शायद सुधार संभव न हो सके .. आगे ध्यान रखें

Comment by Neeraj Neer on January 27, 2014 at 8:51pm

बहुत खूबसूरत  गजल .. बधाई ..

कृपया ध्यान दे...

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