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वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

२१२२      २१२२         २१२

खोजता तू  रेत पर जिनके निशान

अब सभी वो मीत तेरे आसमान

हैं घरोंदे  तेरे रोशन जुगनुओं से

उनके घर दीपक जले सूरज समान

उनके घर में तब जवाँ होती है  शाम

तीरगी में जब छुपे  सारा जहान

वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

देखते कब होता हम पर मिहरवान  

वो नवाबों जैसी जीते हैं हयात

हम फकीरी को समझते अपनी शान

दौड़ कर ही तेज वो पीछे हुये थे

भूल बैठे गोल है अपना जहान

झोपड़े को देख कर वो हँस रहे थे

दब गया महलों के मलवे में गुमान

मौलिक व अप्रकाशित

डॉ आशुतोष मिश्र 

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2013 at 6:16pm

आदरणीय आशुतोष जी , सभी बातें अच्छी लग रही हैं , रचना के लिये बधाई !! गज़ल है या नज़्म समझ नही पाया !! कृपा कर क्षमा करेंगे !!

कृपया ध्यान दे...

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